बीमार शहर | Bimar Shahar

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Bimar Shahar by राजेन्द्र अवस्थी - Rajendra Awasthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शोभा : एक छाया श्७ रहता था । घर में कितने बहाने मैं करती थी । शान्ताक्रज़ से निकलकर सीधे फ्लोरा, फाउण्टेन जाती थी । चचं गेट स्टेशन में सामने की तरफ जो घड़ी लगी है, उसीके नीचे खड़ी होकर मैं उसकी प्रतीक्षा करती थी । इसके बाद हम दोनों खूब सेर करते भ्रौर फिर ग्रांड होटल चले जाते । वहां दो-ढाई घंटे बिताकर हम अपने-अपने घरों को लौट जाते । हमारी मित्रता दिन-प्रतिदिन गाड़ी होती गई। वह श्रक्सर मेरी तारीफ करता था--मेरी देह की श्र मेरे व्यवहार की । हमारी मित्रता इतनी बढ़ी कि एक दिन हमने पति-पत्नी बनने का संकल्प कर लिया श्रौर इस संकल्प के साथ ही मैं मातृत्व के बोक से दबने लगी । उसने मुझे साहस बंधाया । गर्मियों में वह ब्याह कर लेगा । मैं निद्चिस्त उससे मिलती रही श्रौर श्रपने उदर के तन्वुग्रों को प्रसन्नता के साथ फंलते हुए देखती रही । गरमी श्राई । मैंने उससे श्राग्रह किया, वह श्रपने वचन को पुरा करे । मैंने माताजी से यह बात बता दी थी । उनको नाराज़ रखकर भी मैं प्रसन्न थी । वे भी अरब क्या कर सकती थीं । गरमियों के वाद मु्ते पता लगा कि उसने श्रपनी नौकरी ही छोड़ दी है श्रौर वह वम्बई से चला गया है। कहां चला गया, - कोई नहीं जानता । अब मेरी स्थिति विस्फोटक थी । घर-भर मेरा विरोधी था । उन्हें अपनी इउज़त बचानी थी । मैं चक्कर में थी, क्या कहूँ ? कई वार मैंने सोचा, समन्दर दूर नहीं है, पर मन तैयार नहीं हुम्रा । एक पाप को छिपाने के लिए, दूसरा पाप करना मैंने ठीक नहीं समझा । पाप कभी पाप से नहीं कटता । उसके लिए पुण्य ज़रूरी है । मैंने धीरज रखा श्रौर्‌ श्रपनी एक सहेली से सब कुछ मैं कह गई । उसकी मां नसिंग होम की डाक्टर थी । वहां मैं भर्ती हो गई। दो महीने बाद मैंने अपने अधरे मातत्व के वोक को उतार दिया आर मैं फिर कन्या रह गई-उएक कुमारी कन्या । यह एक बड़ी घटना थी । इसने मेरा जीवन ही बदल दिया । मैं कालेज में पढ़ती रही, पर कालेज-जीवन से विरक्त थी । घर से भी वाहर कम ही जाती । घर में पुस्तकों में उलकी रहती और अपने मन को स्रमित होने से बचाने का प्रयत्न करती । इसी वीच मेरी शेखर से भेंट हो गई । उसकी विद्वत्ता से मैं दड़ी प्रभावित हुई । वह जब मेरे श्रघिक निकट झ्राया तो मैंने अपने विगत जीवन के सारे पृष्ठ




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