बीमार शहर | Bimar Shahar

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Bimar Shahar by राजेन्द्र अवस्थी - Rajendra Awasthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बीमार शहर श्र ममन्दर की न जाने किस सहर में डूब गई ; वहां से एक जलता हुआ गोला कार उठा, जैसे किसीने एक भारी गेंद पानी पर से ऊपर उछात दी है। एक बड़ी लहर मेरे पंरों को आकर छू गई मेरा शरीर वांप उठा। मैंने उन हृठीसी लहरों को देखा, वे कितनी स्वच्छ द हैं। उनमें जँसे झोई मर्यादा नही है। अपनी मौज में वे मस्त हैं। जब जितना चाहें जा-जा सकती हैं। कितनी दूर थी, कितने पास था गईं ! इन लहरों से लगी यह धरती हितनी अगहाय है ! न वह चीख सकतो है और न चिल्ला सकती है । यह मौन समपंण कर देती है। सागर की वलिप्ठ भुजाओं में घाहते न चादते उसे बंपना पढ़ता है और यह देखकर मेरी भुजाएं भी फडकने सगती हैं। इस घरती में और मुझमें अन्तर ही कया है। उतनी ही मैं निबंन हूं, उतनी ही अमहाय ! मेरा अस्तित्व भी तो किसी सागर के सहारे है। वह शरण न देगा तो बया आज से यह उछलती गेंद-सा सूरज देख पाती 1 मुनायम रेत में गड़ा एक पैर मैंने ऊपर उठाया तो आवाज़ सुनी। वह आवाज़ निरंजनतिह की थी। बही निरजन जो मुन्न धरती का सागर है। मैं सौदी । दौद्फर उसके पास पहुच गई । उसने मुझे अपनी भुजाओं में कस तिया। बढ मेरे लहराते झुतल सहलाने लगा । समन्दर की हवा जैंगे उसके हाथों में आकर रामा गई थी। मेरे तन-मन ने उस स्पर्श में स्वर्ग के एक अलिशित सुख का अनुभव किया । बड़ी देर तक वह सहलाता रहा। मैं मौन उम्रके समर्पण में अपार सुर्र का अनुभव करतो रही । “मंजरी !”-.-बह थोला । उमबी भुजाओं से दूर होते हुए मैंने कहा--'हा, तिरजन**॥/! +--“सवेरे-सवेरे यहां आ गई थीं ? “हां, चिडियो फी चहक के साथ ही उठ गई थी । झत-भर मींद नहीं आई। मन भटकता रहा। विडियो की पहलो आयाड़ में भटयते मन को सहारा दिया । तुम तब शो रहे थे। छुम्हें जगाना मैंने ठीए गहीं समझा । अपनी आपी चादर भी मैंने तुम्हें ही ओड़ा दी । पीरे-पीरे शिसकी कि तुम जाग ने जाओ । पलंग से नीचे उतरी हि स्वच्छर थी। यहा सी... बाई 1! न यह सब मैं एक ही सास में कह गई । गिरजन ने मुझे देखा। पूरकर




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