अलंकार मीमांसा | Alankar Mimansa
श्रेणी : भाषा / Language, हिंदी / Hindi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.6 MB
कुल पष्ठ :
332
श्रेणी :
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No Information available about मुरली मनोहर प्रसाद सिंह - Murli Manohar Prasad Singh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अलंकार : लक्षण-निरूपण प्र
लक्षण-निरूपण करते हुए कहा है--
7... “वस्तु या व्यापार की भावना चटकीली करने श्नौर भाव को श्रधिक उत्कर्ष
पर पहुँचाने के लिए कभी किसी वस्तु का आकार या गुण बहुत बढ़ाक़र दिखाना
पड़ता है, कभी उसके रूपरंग या गुण की भावना को उस प्रकार के श्रौर रूपरंग
मिलाकर तीव्र करने के लिए समान रूप शऔर धर्म वाली श्रौर-प्रौर वस्तुझ्रों को
सामने लाकर रखना पड़ता है। कभी-कभी वात को घुमा-फिरा कर भी कहना पड़ता
है । इस प्रकार भिन्न-भिन्न विधान श्र कथन के ढंग को अलंकार कहते हैं ।”
फिर इसी मंतव्य को श्राचायं शुक्ल पारिभाषिक शैली में प्रस्तुत करते हैं--
““सावों का उत्कर्ष दिखाने श्रौर वस्तुओ्रों के रूप, गुण शभ्रौर क्रिया का अधिक तीव्र
अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति अलंकार है ।””
श्राचार्ये रामचन्द्र दुक्ल भी झ्ररंकारों को काव्य का श्रस्थायी धर्म ही मानते
के ससंज्ञ भाव से उन्होंने *कभी-कभी* शब्द का व्यवहार किया है । लेकिन
नि सृूजन-प्रक्रिया में अलंकार किस प्रकार अनिवायं हो जाते हैं, स्वतःस्फूर्ते
उत्ते हैं, इस सम्बन्ध में सुमित्रा नन्दन पंत ने *पल््लव” की भुमिका में कहा है--
,... “्रलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव की अभिव्यक्ति
के विशेष द्वार हैं। भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपुर्णता के लिए श्रावश्यक
उपादान हैं, वे वाणी के झ्राचार, व्यवहार, रीति-नीति हैं; पथक् स्थितियों के पृथक
स्वरूप, भिन्न अवस्थाश्रों के भिन्न चित्र हैं। वे वाणी के हास, भ्रश्रु, स्वप्न, पुलक,
हाव-भाव हूँ ।””
महाकविं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी श्रलंकारों के महत्त्व पर प्रकाश डालते
हुए कहा है--
“कथा के द्वारा जिसका वर्णन. नहीं हो पाता, छवि के द्वारा उसे
कहना पड़ता है। उपमा-रूपक झ्रादि के द्वारा भाव-समूह प्रत्यक्ष होकर उठना
चाहता है। चित्र एवं संगीत ही साहित्य के प्रधान उपकरण हैं । चित्र भाव को
श्राकार देता है एवं संगीत भाव को गति प्रदान करता है । चित्र देह है एवं
संगीत प्राण |
दाव्दालंकारों के द्वारा काव्य के प्राण-स्वरूप संगीत-घर्म की अभिव्यक्ति होती
है भर . अ्र्थाखिंकारों के द्वारा काव्य के अंगभूत चिंत्र-धर्म की अभिव्यक्ति होती है ।
अलंकार काव्य के नित्य धर्म हैं, दार्त यह कि महाकवियों की अभिव्यक्ति में संयम
हो। डा० .राघवन के दाब्दों में-- “ऐसे अलंकार काव्य में वहिरंग नहीं समझे
जा सकते श्रौर केवल कटक-केयूर की तरह पृथक होने वाले आभूषणों से उनकी तुलना
नहीं हो सकती ।. उनकी तुलना. तो कामिनियों के उन श्रलंकारों से की जानी
चाहिए, जिन्हें भरत ने सामान्याभिनय-प्रकरण में हाव-भाव श्रादि कहा है, कटक
और केयूर नहीं ।” (80016 (००७६४ 0 &धिशाददा' उघ58,
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