आप्त - परीक्षा | Aapt - Pariksha

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Aapt - Pariksha by दरबारीलाल जैन - Darabarilal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द ; आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका मान लिया गया था आर उन्हें भी स्वज्ञ माना जाता था। अतः उसे कहना पढ़ा कि ये त्रियूर्ति दो वेदमय हैं अतः वे सर्वज्ञ मले दी दो किन्तु मनुष्य स्वेज्ञ केसे दो सकता, दे । उसे मय था कि यदि पुरुषकी सर्वेज्ञता सिद्ध हुई जाती है तो वेदके प्रामारय को गददरा घक्का पहुँचेगा तथा धर्ममें जो वेदका दी एकाधिकार या वेदके पोषक ज्राह्यणों- का एकाधिकार चला छाता है उसकी नींव दी दिल जावेगी। अतः छुमारिल कहता है कि मई ! हम तो मनुष्यके घर्सेक्ष दोनेका निषेध करते हैं । घमेको छोड़कर यदि मज्ुष्य शेष सबको भी जान ले तो कौन मना करता दे ? जैसे छाचार्य समन्तभद्रके हारा स्थापित स्वोक्षताका खण्डन करके कुमारिलने अपने पूर्व शबरस्वामीका बदला चुकाया बैसे ही कुमारिलका खण्डन करके अपने पूर्वेज स्वासी समन्तभद्रका बदला भडाकलझने और सयब्याजके स्वामी चियानन्दिने शुकाया । विद्यानन्दिने 'ाप्तमीमांसाकों लकयमें रखकर दी 'छपनी श्ाप्तरीशाकी रचना की । जद्दों तक इस जानते हैं देव या तीर्थकरके लिये आप्त शब्दका व्यवद्दार स्वामी समन्तभद्रने दी अचलिंत किया है। जो एक न केवल मागेद्शंक किन्तु मोक्षमागंद्राकके लिये सबंधा संगत है। आप्तमीमांसा और श्ाप्तरीक्षा-- सीमांसा और परीक्षामें अन्तर है । आाचाये देसचन्द्रके मीमांसा शब्द “छादरणीय विचार” का वाचक दे जिसमें अन्य विचारोंके रद मोंचका भी विचार किया गंया दो वद्द सीमांसा है और न्यायपूवक परीक्षा करनेका नाम परीछ़ा है । इत्त दृष्टिसि तो आप्तंमीमांसाकों आप्तपरीक्षा कहना दी संगत होगा, क्योंकि 'छाप्तमोमांसामें विभिन्न विचारोंकी परीक्षाके हारा जैन आप्तप्रतिपादित स्या- ह्वादन्यायकी ही प्रतिष्ठा की गई है; जबकि छाप्तपरीक्षामें मोक्षमार्गोंपदेशकत्वको आधार बनाकर विभिन्न 'आप्तपुरुषोंकी तथा उनके द्वारा अतिपादित तस्त्वोँकी समीक्षा करके जैन आाप्में ी उसकी प्रतिष्ठा की गई है। यद्यपि आप्तपरीक्षामें ईश्वर कपिल, बुद्ध, नह्म 'यादि सभी असुख झाप्तोंकी परीक्षा की गई है, किन्तु उसका प्रमुख झऔर आादय भाग तो इंश्वरपरीक्ता है जिसमें इश्वरके सष्टिकठत्वकी सभी इृष्टिकोशोंसे विवेचना करके उसकी धाजियां उड़ा दी गई हैं । कुल १९४ कारिका थॉंमें से ७७ कारिका इस परीक्षाने घेर रकक्‍्खी हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वरके सष्टिकद त्वके निराकरणुके लिये दी यदद परीक्ताप्रन्य रचा गया है। और वत्कालीन परिस्थितिकों देखते हुए यह उचित भी शान“ पढ़ता है; क्योंकि उस समय शक्कुरके 'हतैतवादने तो जन्म दी लिया था । वौद्धोंके पैर उखड़ 'चुके थे । कपिल वेचारेको पूछता कौन था। इंश्वरफे रूपें विष्णु और शिवकी पूजञाका लोर था। अतः विद्यानन्दिने उसकी दी ख़बर लेना उचित समझा होगा | १. 'भमेशत्वनिषेषस्तु केवलोश्नोपयुश्यते । सर्वमन्यद्‌ विजानानः पुरुषः केन चार्यते ॥ २. न्यायतः परीचण परीक्षा । दूजितविचारवचनर्च सीसांसाशब्दः। अमा० सीमा ० --ए० ९| '




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