रस सिद्धान्त की शास्त्रीय समीक्षा | Ras Siddhant Ki Shastriy Sameeksha

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Ras Siddhant Ki Shastriy Sameeksha by सुरजनदास स्वामी - Surjandas Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हाँ, एव वात झवध्य है । इस वाये में स्वामीजों ने प्राचीन शास्त-लेखकों सो एक परम्परा को तो त्याग ही दिया । सस्कृत के हमारे वास्तरदारों को खण्डनर्दली में व्यक्ति के नामोल्लख के बिना केवल विचारों को ही झ्ालोचना टुम्ा ररती थी, भले उसकी भाषा कठोर या क्टु ही क्यों न हो । किन्तु इसके ठीक विपरीत स्थिति है झाघुनिक घोघ-प्रक्रिया वी, जहाँ “टाकूमेन्टेयन' का. झपना एक अलग हो विधि- विधान है. जो ऐसे प्रत्येर खण्डन-मण्डन में पूर्व-सदर्भ का स्पप्ट उल्लेख भ्रनिवाये मानता है । इसलिए स्वामीजी विददा हो गये, झ्राधघुनिक सरधि अपनाने में । यह है भी ठीक, क्याकि वर्तमान सदम से “इति केचित्‌, तन्न”, “इति केंचिन्मन्यन्ते, तततू तुच्ठमू”, “तद्‌ श्रसारम्‌”, “तद्‌ अ्रजानविजूम्भितम्‌ की पद्धति घाज लर्जेरित सिद्ध हो गयी है । इसलिये स्वामीजी का निर्णय सही था दि झ्रव दोंघ के क्षेत्र में ऐसे “वे चिदू' वाले मुहावरों की दाल नहीं गलेगी श्रौर स्वस्थ झ्रालोचना में ्रालोच्य पक्ष बा पूर्व सदर्भ देना ही उपयोगी एवं उचित होगा । बिन्न पाठकों के लिये निद्चित हो यह विचारणोय प्रदन है कि श्राखिर स्वामीजी की प्रस्तुति में श्रौर उन पूवलेखको की प्रस्तुति में, जिन से पद-पद पर लोहा लेने का स्वामीजी ने साहस वटोरा है, इतना वटा अन्तर श्रीर श्रन्तरात वयो है * मेरे विचार से इसके दो कारण हैं । (१) पहला स्वामीजी सस्कत की उस प्रौड प्राचीन पद्धति (जो श्राज दुर्भाग्यवदा मिटने की ग्रौर तेजी से कटती जाती है) के मान्य प्रतिनिधियों में से हैं, जो किसी भी ग्रन्थ के भ्रध्ययन-मनुधीलन में “पड, क्ति-पाठ' ब्रौर “पड क्ति-शुद्धि' पर महान्‌ झात्रह करते हैं। ठीक इसके विपरीत है वर्तमान वेग-युग के श्रघ्ययन का श्रादर्श जिसके वारे में एक पारम्परिक विद्वानू ने सुन्दर छन्द लिख डाला है-- अन्तःपातमइत्वैव निवन्धाश्यन्तरस्थितमू 1 झापाततों दिदृक्षनते केचिदायासभीरव. ॥1' भावार्थ इस प्रकार है--परिश्रम से कतराने वाले कुछ (श्राघुनिक) लोग ग्रन्थ के भ्रन्दर डूव कर उसके प्रत्येक पद, मुहावरे श्रौर वाइय के प्रौट-गम्भीर विश्तेपण के द्वारा उसकी गहराइयों तक पहुँचने के वनेश में पड़ना नहीं चाहते हैं 1 ऐसे घाब्दिक व्यायाम वरगरह के लिये उनके पास समय नही है । चाहते हैं बेवल ग्रन्य का सार । लपर-ऊपर से ग्रन्थ में निहित मूलभावों के सममनेसात्र से वे सन्तुप्ट हैं 1 ग्रन्यावलोकन में उनका लक्ष्य हो इनने तक सीमित हैं । (३) टूसरा कारण यह है कि स्वामोजी हमारे देश के विशुद्ध शास्त्रीय परम्परा के वाहक हैं, निये सम्इत में कहते हैं “सम्प्रदाय । ध्राजकत “सम्प्रदाय' दाब्द से ही लोग चिटने हैं । घामिव- कुरोतियों से जुड़ जाने के कारण “सम्प्रदाय ही निन्‍्द्य श्रोर हेय चने गया 1 जन १. शास्तिरक्षित-प्रधोत तन्वसझग्रह (वढादा सम्बरध), प्रयम जिल्‍्द, सस्पादर पे एस्दार इरएमाचा्प को सस्हतप्रस्तावना, पृ से [१०]




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