जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग - 1 | Jain Bauddh Aur Gita Ke Aacharadarshanon Ka Tulanatmak Adhyayan Bhag - 1

Jain Bauddh Aur Gita Ke Aacharadarshanon Ka Tulanatmak Adhyayan Bhag - 1 by सागरमल जैन - Sagarmal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न रु न गोता के त्रिगण सिद्धान्त से तुलना की गई है । अन्तिम उन्नीसवें अध्याय में जन आचार का प्राचीन एवं अर्वाचीन संदर्भों में मूल्यांकन किया गया है । कृतज्ञताज्ञापन प्रस्तुत गवेषणा में जिन महापुरुषों, विचारकों, लेखकों, गुरुजनों एवं मित्रों का सह- योग रहा है उन सबके प्रति आभार प्रदर्शित करना मैं अपना पुनीत कतंब्प समझता हूँ । कृष्ण, बुद्ध और महावीर एवं अनेकानेक ऋषि-महबियों के उपदेशों की यह पवित्र घरोहर, जिसे उन्होंने अपनी प्रज्ञा एवं साघना के द्वारा प्राप्त कर मानव-कत्याण के लिए जन-जन में प्रसारित किया था, आज भो हमारे लिए मागंदर्शक हैं और हम उनके प्रति श्रद्धावनत्‌ हूं । लेकिन महापुरुषों के ये उपदेश, आज देववाणी संस्कृत, पालि एवं प्राकृत में जिस रूप में हमें संकलित मिलते हैं, हम इनके संकलनकर्ताओं के प्रति आभारी हैं, जिनके परिश्रम के फलस्वरूप वह पवित्र थाती सुरक्षित रहकर आज हमें उपलब्ध हो सकी हू । सम्प्रति युग के उन प्रबुद्ध विचारकों के प्रति भी आभार प्रकट करना आवश्यक है जिन्होंने बुद्ध, महावीर भौर कृष्ण के मन्तव्यों को युगीन सन्दर्भ में विस्तारपूर्वक विवें- चित एवं विश्लेपित किया है। इस रूप में जैन दर्दान के मर्मज्ञ पं० सुखलालजी, उपाध्याय अमरमुनि जी, मुनि नथमलजी, प्रो ० दलसुखभाई मालवणिया, बौद्ध दर्शन के अधिकारी विद्वान धर्मानन्द कौसम्बी एवं अन्य अनेक दिद्वानों एवं लेखकों का भी मैं आभारो हूं, जिनके साहित्य ने मेरे चिन्तन को दिशा-निर्देश दिया हे । मैं जैन दर्शन पर शोध करने वाले डॉ० टाटिया, डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, डॉ० पद्म राजे, डॉ० मोहनलाल मेहता, डॉ० कलघटगी, डॉ० कमल चन्द सोगानी एवं डॉ० दयानन्द भागंव भादि उन सभी विद्वानों का भी भाभारी हूं, जिनकें शोध ग्रन्थों ने मुझे न केवल विपय भर शेली के समझने में मार्गदर्शन दिया वरन्‌ जैन प्रन्थों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भों को बिना प्रयास के मेरे लिए उपलब्ध भी कराया है । इन सबके अतिरिक्त मैं विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं के उन लेखकों के प्रति भी आभारी हूँ, जिनके विचारों से प्रस्तुत गवेषणा में लाभान्वित हुआ हूँ । उन गुरुजनों के प्रति, जिनके व्यक्तिगत स्नेह, प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन ने मुझे इस कार्य में सहयोग दिया है, श्रद्धा प्रकट करना भी मेरा अनिवार्य कर्तव्य है । स्वप्र थम मैं सोहा्द्र, सीजन्य एवं संयम की मूर्ति श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ० सी ० पी ० ब्रह्मों का अत्यन्त ही आगभारी हूँ । अपने स्वास्थ्य की चिन्ता नही करते हुए भी उन्होंने प्रस्तुत प्रन्थ के अनेक मंदों को ध्यानपुर्वक पढ़ा या. सुना एवं यथावसर उसमें सुधार एवं संशोधन के लिए निर्देश भी किया । मैं नहीं समझता हूं कि केवल शाब्दिक आभार प्रकट करने मात्र से मैं उनके प्रति अपने दायित्व से उऋण हो सकता हूँ ।




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