रवीन्द्र - कथाकुञ्ज | Ravindra - Kathakunj

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Ravindra - Kathakunj by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जय और पराजय ७ प्रत्येक इंटको मानो उन्होंने ( हृदय-स्रोतों ने ) स्पश किया, श्रालिगन किया ; चुम्बन किया ; ऊपर अन्तःपुरके करोखों तक पहुँचकर राज- लक्षमीस्वरूप प्रासाद-लडिमयों के चरणों में रनेहाद्र॒ भक्ति-भावसे नमस्कार किया ; और वहाँसे लौटकर राजा और राज-सिहास नकी बड़े भारी उल्लास - के साथ सैकड़ों बार प्रदक्षिणा की । अन्तमें कविने कहा--महाराज, वाक्योंसे तो हार मान सकता हूँ ; परन्तु भक्तिमें सुभे कोन हरा सकता है? यह कहकर वे काँपते हुए बैठ गये । उस समय झाँसुझरोंके जल- से नदाई हुई प्रजा जयजयकारसे श्राकाशको कस्पित करने लगी ! साधारण जनताकी इस उन्मत्तताकों धिक्कारपूरण हँसीमें उड़ाकर बुर्डरीकजी फिर उठ खड़े हुए । उन्होंने गरजकर पूछा--वाक्यकी अपेक्षा और कौन श्रेष्ठ हो सकता है ? यह सुनकर सब लोग घड़ीभरके लिए मानों स्तब्ध हो रहे । अब पुर्डरीकजी नाना छुन्दोंमें श्रदूभुत पारिडस्य प्रकाशित करके वेद चेदान्त, आगम निगस आदिये अमाखित करने लगे कि विश्वमें वाक्य ही सर्वश्रेष्ठ है । वाक्य ही सत्य और वाक्य ही ब्रह्म है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी वाक्यके वशवर्ती हैं, अतएव वाक्य उनसे भी बढ़ा चढ़ा है । त्रह्माजी अपने चारों मुखोंसे वाक्यका अन्त न पाकर आखिर चुपचाप ध्यांन-परायणु दोकर वाक्य हूँढ़ रहे हैं इस तरह पारिडस्यपर पारिडत्य और शाख्रपर शाख्रके ढेर लगाकर वाक्यके लिए एक थ्रश्रमेदी सिंहासन निर्माण कर दिया गया । उन्होंने वाक्यको मत्यंलोक और सुरलोकके मस्तकपर बैठा दिया और फिर बिजलीके समान कड़ककर पूछा--वो अब बतलाइए कि वाक्यकी अपेक्षा श्रेष्ठ कोन है ? इसके बाद पुण्डरीकज्ीने बड़े दपंके साथ चारों श्र देखा ; श्र जब किसीने कुछ॒ उत्तर नहीं दिया, तब धीरे धीरे अपना झासन ग्रहण कर लिया । परिडतगण “धन्य घन्य' और “साघु




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