शांति - यात्रा | Shanti - Yatra

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Shanti - Yatra  by विनोबा - Vinoba

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध कतिनतना प्रार्थना में अपार सामर्थ्य है । उसके साथ गांधीजी के स्मरण का भी सामध्यं मिठ जाता है तो भावना दुढ़ हो जाती है। वैसे, इंश्वर का सामथ्यं अनंत है । उसमें हमारी तरफ से कुछ जोड़ देने से बढाव होनेवाला नही हैं । फिर भी हम लोगों के लिए जहां दोनों साम्थ्य॑ एकत्र होते हे वहां कुछ विशेष अनुभूति आती हैं । अभी बोलते-बोलते गीता का अंतिम दलोक मु याद आया जिसमे कहा है, “जहा भगवान हे और जहां भक्त है वहां सब कुछ है ।” वैसे तो जहां भगवान है वही सब कुछ है । लेकिन भगवान को तो हमने आंख से देखा नही हे । भक्त को हम देख सकते है । इसलिए हमारी निगाह में भक्त की महिमा बढ़ जाती हैं । समुद्र का पानी भाप बनकर बादलों में जाता है. और वहां से हमे मिलता है । पर हमारे लिए तो बादल ही समुद्र से बढकर है । समुद्र को दिल्‍लीवालें कया जानें ? वे तो बादल का ही उपकार समभेंगे । तुलसीदासजी नें लिखा ही है न ? “राम ते अधिक राम के दासा ।” लेकिन यह तुलना हम छोड़ दें । हमारी दृष्टि से इस प्रार्थना मे दोनो दाक्तिया एकत्र हो गईं हे । सो भक्तिपूर्वक, बिना चूके, काम-घंघे आदि का सर्वे विचार एक बाजू रखकर हम इस प्राथना मे साथ देगे तो सारे जीषन में परिवर्तन हो जायगा । कुरान मे एक सुदर प्रसंग है । महम्मद पैगंबर ताजिरों के साथ बात कर रहे हे । वे उनसे कहते हैं, “आप लोग रोज अपनें घंघों में लगे रहते हे, लेकिन हफ्ते में कम-से-कम एक दिन तो अपने धंधों को छोड़कर भगवान की शरण में




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