रत्नकरण्डक सेवकचर | Ratnkardak Sawakachar

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Ratnkardak Sawakachar by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्इ एक मात्र पयप्रदर्शीक होते ये । देशमें उस समय मुनिजनोंकी सासो दहुलत शी और उनका प्रायः दरदक्तझा सत्समागम बना रइता था। इससे ग्हस्थ ठोग धर्मध्रवणके छिये उन्दोंके पार जाया करते ये और धर्मकी ब्याटयाकों सुनकर ठन्दींसे अपने लिये कभी कोई व्रत, किसी स्वास परत अथवा शतसमूदकी याचना किया करते थे । साधुजन भी धावकोंझो उनके ययेष्ट बर्तव्य कर्मका उपदेश देते ये, उनके याचित प्रतको यदि उचित समझते थे तो उसी गुर्मंत्रपूरवेक उन्दे दीक्षा देते ये और यदि उनकी शक्ति तथा स्थिति- योग्य उसे नहीं पाते थे तो दसका निषेध कर देते ये, साथ ही जिस शतादिकेडा उनके छिये निर्देश करते थे उसके विधिविधानहों भी उनकी योग्यताके भजुकूल ही नियत्रित कर देठे ये । इस तरदपर शुरुनोंके द्वारा धर्मोषदेशकों मुनरर धर्मातु्रानदी जो डुए शिक्षा धादरशोंशो मिलती थीं उसके अनुसार चलना वे कषपना धर्म--अपना कर्तम्यक्म--समझते थे, उसमें * चूँबरा * ( हि, कथसित्यादि ) रूरना उन्हें मददीं आता था, भयवां यों बहिये कि उनवी धद्धा और भक्ति उन्हें उस कोर ( संययमागेवी तरफ ) जाने दीन देती थी । भ्राववोमिं सर्दे्र झाशाप्रधानताा सामाज्य ह्पापित था श्र अपनी इस प्रदत्ति तया परिणतिके कारण ही वे लोग धावक+ तथा भरा» बहडाते थे । उस वक्त तक धावकपर्ममें, अपवा €बाचार-रिपयपर धादवोंमें सका प्राय प्रदेश ही नहीं हुआ था भर ने नाना आदार्योकां परस्पर इतना मतभेद ही हो पाया था जिसको प्याइ्या करने अथवा जिसझा सामजस्य एप! पित «+ 'शणोति गुवोदिन्यों धर्मपिति श्रादक ' ( सा ध* टी ) जो शगुद शादिकके मुखते धर्म धवण करता दे उसे धावइ ( धुननेवाठा ) रहते हैं । संपत्तइंसणाईं पहदियदं शइजणा सुणेई पथ । सामाधारिं परम जो खलु सं सावगं दिन्ति 0 --थधावदप्रशपि । जो सम्यगदरनादियुक्त शदस्य प्रतिरित सुनिजनों डे पास जार परम सामा- थारीको (साधु तथा एदस्योंके भावारदिशेषश्ों ) धवण ररता हू सते धावक' कदते हैं । 2६ भ्रद्धासमन्वित अदवा धद्धा्युण-युक्तदो * घाद * करते हैं, ऐसा हेमचद तथा धीषरसेनादि आबायोंने प्रतिरादन किया दे । मुनिजनों के आादार-रिदारमे धडद्दा रकनेझे कारण ही शनके उरादर धाद * रुइडाते थे




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