जैनतत्त्वमीमांसा | Jaintattvamimansa

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Jaintattvamimansa  by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १९ ) ये तीन तर्क है । इन पर विचार करनेसे विदित होता है कि प्रथम दोनो तर्क॑ तीसरे तर्कमे ही समाहित हो जाते हैं, श्रतः तीसरे तर्क पर समूचित विचार करनेसे शेष दो तर्कोका उत्तर हो ही जायगा, श्रत: तीसरे तर्कके झाघारसे श्रागे विचार करते है-- सर्वप्रथम विचार इस बातका करना है कि जब समर्थ उपादान शभ्रौर लोकमें निमित्तके रहते हुए भी कार्यकी लोकमें कही जानेबाली बाधक सामग्री श्रा जातो है तब विवक्षित द्रव्य उसके कारण क्या झपने परिणमन स्वभावकों छोड देता है ? यदि कहो कि द्रव्यमे परिणमन तो तब भी होता रहता हैं । वह तो उसका स्वभाव हैं । उसे वह कैसे छोड सकता हैं तो हम पूछते हैं कि जिसे भ्राप बाधक सामग्रो कहते हो वह किस कार्यकी बाधक मानकर कहते हो । श्राप कहोगे कि जो कार्य हम उससे उत्पन्न करना चाहते थे वह कार्य नहीं हुम्रा, इसलिए हम ऐसा कहते है । तो ब्रिचार कीजिए कि वह सामग्री विवक्षित द्रव्यके श्रागे होनेवाले कार्यकी बाघक ठहरो कि झापके सकल्प की ? विचार करने पर विदित होता है कि वस्तुतः वह विवल्षित द्रव्यके कार्यकी बाघक तो त्रिकालमें नहीं है । हाँ श्राप झ्रागे उस द्रव्यका जसा परिणमन चाहते थे बसा नही हुमा, इसलिए श्राप उसे कार्यकी बाधक कहते हो सो भाई ! यही तो भ्रम है। इसी _ अमको दर करना है। वस्तुतः उस समय द्रव्यका परिणमन हो झापके. संकल्पानुसार न होकर भ्रपने उपादानके श्रनुसार होनेवाला था, इसलिए जिसे झाप झपने मनसे बाधक सामग्री कहते हो वह उस समय उस प्रकारके परिशमनभ निमित्त हो गई । शत: इन तकोंके समाधानस्वरूप यही समभना चाहिए कि प्रत्येक समयमें कार्य तो भ्रपने उपादानके श्रनुसार ही होता है श्रौर उस समय जो बाह्य सामग्री उपस्थित होती है वही उसमें निममित्त हो जाती है। निमित्त स्त्रय झन्य द्रव्यके किसी कार्थको करता हो ऐसा नहीं है । उदाहरणा्थ दोपकके प्रकाशमें एक मनुष्य पढ़ रहा हैं। अब विचार कीजिए कि वह मनुष्य




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