पार्श्व जीनेश्वर महाकाव्य | Parshv Jineshwar Maha Kavya

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Parshv Jineshwar Maha Kavya by महोपाध्याय माणकचन्द रामपुरिया - Mahopadhyay Manakchand Rampuriya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कोई उसके साथ नही हे- लक्ष्य न जाने दूर कही है, गहन भ्रॉति मे भटक रहा है- धारा में अविराम बहा है, सत्य किन्तु है दृग से ओझल- तत्व हृदय का मिला न निर्मल, घोर तिमिरमय पथ है आगे- कैसे जडता बन्धन त्यागे, समझ न कुछ भी आ पाता है- केवल चलता ही जाता है, अपनेपन का भाव भुलाकर बैठा लौलुप रथ पर आकर, स्वार्थ-सिद्धि मे लगा हुआ है- जन्म-मरण-भय नही छुआ है, अपने को सर्वज्ञ मानता- किन्तु सत्य क्या ? नही जानता, घर-घर हिसा-देष-कलह है- पीडित जन-जन सभी तरह दे एक-एक पर जोर दिखाता- अपनो का ही रक्त बहाता, लाल-लाल लोहू की धारा- का है फूटा नया फबारा, कोई इसको समझ न पाता- किसका रक्त ? नहीं बतलाता, पाश्वं जिनेश्वर 9




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