आचार्य श्री तुलसी | Acharya Shree Tulsi

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Acharya Shree Tulsi  by मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋष्‌ प्क (दन इस अपन शा डाया सदुस्ता घथा से साजस सरह्ाण शहर, समय ही पोथी पर हरताल फंरनी होगी 1 लोभ वी भाग सर्वग्राही होती है । व्यास ने वहा है : नाच्छित्दा परमर्माणि, नाइत्दा कमें दुध्करमु । नाहत्वा मर्स्पघातीव प्राप्नोति महतीं धियम्‌ ॥ बिना दुशरों के मम का छेइन किये, बिना दुष्कर बमं तिये, विना भरस्य याती की भाँति हनन किये (जिस प्रकार घीदर भपने स्वार्थ के लिए निदयता ये संकड़ों पछलियो को मारता है) महठी श्री प्राप्त नहीं हो सकती । लोभ के र्शोमूत होकर मनुष्य प्रौर मनुष्यो का समूह्‌ पन्था हो जाता है, उसके लिए कोई काम, कोई पाप, प्रङरणोय नहीं रह्‌ जाता । लोभ धौर लोमजन्प मानस उस समय सन वी पराकाप्ठा को पहुँच जाता है, जज मनुष्य श्रपनी परपीडन-प्रवृतति को गरहितकारक प्रदुत्ति के शप में देखते लगता है, किसी का दोपण-उत्पीड़न करते हुए यह समझते सगता है कि मैं उसका उपकार कर रहा हे । बहून द्विगो थी बात नहीं है, यूरोप वालों के साम्राज्य बाय: सारे एदिया भौर फीता पर पने हुए थे । उन देशों के निवासियों वा शोपण हो रहा था, उनकी मानवता शबली जा ९ही थी, उनके घात्म-सम्मात का हनन हो रहा था, परन्तु गूरोपियन कहता था कि हम हो बतंब्य का पालन मर रहे हैं, हमारे वर्घों पर हट स वरन (गोरे मनुष्य का बोक) है, हमने भपने उपर इन शोगों वो ऊपर उठाने का दायित्व ले रखा है । धीरे-धीरे इनको सम्य बना रहे हैं । सम्यठा की कसौटी भी पूषकु-पूषरू होती है । १ई सार हुए, मैंते एक कहानी प्री दो । थो हो बदानी ही, पर रोचक भी थी भौर परिचमी सम्यता पर कुछ प्रशन दासती हुई भी । एक फंच पादरी धफ्ीरा को निसो सर-मौसनमक्षी जंगली जातियों के बीच काम कर रहे थे । शुछ दिन बाद लौटकर फॉस गये भौर एक साइंजनिक सभा से उन्होंने भ्रपती सफलता की घर्चा की ! किसी में पृष्ठा, बया पत्र उन सोगों ने नरनमाँस खाना छोड़ दिया है ?” उन्होंने बहा, “नहीं; पी ऐसा तो नहीं टुपा, पर पब यो ही हाय से याने के स्थान पए शुरीनवटे से राने लगे हैं +” मेरे बहने का तात्पर्य पढे है कि उस समय पतन पराया पए पटच जाता, जग मदुप्य को दातम-दञ्यना प्य सोमा तक पटे खातों है कि पाप पुष्य बन जाता है। विदेशश्नप्टान भर्दति जिनिपात दावे




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