अहिंसा - पर्यवेक्षण | Ahinsa - Paryavexan

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Ahinsa - Paryavexan by मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अहिया-पर्यवेक्षण भाणीमाने को जिजीविषा और भिवनमुसुलु की कषाय-विशिभीष। *ै से ्रावि- भूत यहुअह्सि। की धारा कालकम के साथ पान! अब रोहों आर आरोहों में सतत अवाही रही है । इतिहास के सजभाग पर लाकर, इसके उन्मेष और निभेषो का जब हम चिन्तन करते हैं तो इसको दार्शनिक जटिलताएं दूर हो जाती हैं श्रौर इसका सह्ण स्वरूप हमारे सामने आ ज।ता है । इति६।५ केवर्य श्रतीत की ५।य-।५ना का ही ब्यौर। वही ता, कभी-कभी वह्‌ वतमान की य4।यत। का मी ५।१८५७ बच जाता है । अागनसिक धारणा सागसिक और पौराणिक धारणा के अनुसार उत्सपण और श्रनसपणके श्रत्येक काल-पकाषे से चौबीस तीयकर होते हैं और वे सभी उपदेश करते हैं. »1ण, भूत, जीव) सस्नी की हिसा न करो, उत पर शासन संत करो, उपको पीडित संत १. क. सव्ये जीवा वि ६०्दन्ति, जीविउ न सरजिउं । ५५६। पाणिषहूं घोर) निर्मन्धा वज्जयन्तिण दस० दि १० ख. सबब प।णा पियाउया चुप कृं पडकूला श्रत्पिविवहू्‌। पिव जोनगो जीवि कामा । तन्वति जीय पिय, नाइवइज्ज फिचणे । ।८।० १ २.३. ग. जिजीविष। ५९ वियेष महसा भौर धमं का प्रयोजन प्रकरण में । २. क. नोहोय नागों य श्रणिश्बहीवां न्ना य लोभो य पवड्ढनाणा । छ(रि एद कलिना कषाया तिजचन्ति मूला पूणन्मवत्त ॥। २० ८, १५. ख. थः लयु कवावयोनात्‌ श्ाणानां द्रब्यसावरूपाणों 1 व्यपरोपणस्थ करण सुनिश्चिता भवति सा हिसा ॥ पुरुषान तिदय पाव श्लोक ४६ गे. कपायसुक्ति: किले सुक्तिरिव




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