आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन | 1811 Agam Or Tripitak-ek Anusheelan Vol-3

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
1811 Agam Or Tripitak-ek Anusheelan Vol-3 by मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

Add Infomation AboutMuni Shri Nagraj Ji

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
तत्त्य : आचार : कथानुयोग एक अवलोकन 11 भारतीय विद्या के क्षेत्र मे, धर्म गौर হাল ঈ क्षेत्र मे, अनेकानेक ऐसे विषय हैं, जिनपर पुष्कल शोघकाय हो सकता है उस सदं मे भिन्‍त-मिन्‍न दिद्वाओ मे विदुवज्जन, अनुसन्धित्सु वृन्द कार्य-सलग्न हैं । भारतीय विद्या की दृष्टि से हमारे प्रमक्ष मुख्यतः दो धाराएं हैं--ब्राह्मण-सस्कृति एवं श्रमण-सल्क्ृति । ब्राह्यण-सस्कृति वह है, जिसके पुरोधा ब्राह्मण वदोत्पन्न ऋषि महरि थे, जिन्होंने वेदो के अनुरूप इस सस्कृति का सर्जन किया । उसका मुख्य आधार ईइवरवाद है। उसी के समकक्ष एक और सस्कति पल्‍लवित हुईं, जिसके पुरोधा मुख्यतः वे क्षत्रिय रालकूमार ये, जिन्होने मत्यत वैराग्य के साथ भोगमय, कामनामय, लिप्सामय जीवन का परित्याग कर, अकिचनता का, त्याग का जीवन अपनाया । ईदवर के सृष्टि-कतृ त्व भादि सिद्धान्तो मे उनका विवास नही था! गात्मा के परमात्मभाव मे' रूपान्तरण मे उनकी आस्था थी, जिसे सिद्ध करने की शक्ति आत्मा मे है । अपने ही उद्यम, यत्न या श्रम के वल पर व्यवित अपना उच्चतम उत्कर्प सिद्ध करने मे सक्षम है, इस आदत के स्वायत्तीकरण के कारण यह्‌ सस्कृति भमण-सस्कृति' कलाई अथवा इसे यो मी कहा जा सकता है-- ऐसे आद्शों पर चलनेवाले त्याग-वैराग्यशील स्व-परकल्याण परायण साधक, श्रमण कहे जाते थे । उन्होने श्रममय, तपोमय, साधनामय आदर्शो पर आधारित जिस सस्कृति का निर्माण, विकास भौर सवद्धंन किया, वह्‌ श्रमण पस्कृति दै 1 पुरातनकालीन साहित्यिक आधारो से हम पाते है कि वह सस्कृति अनेक छोटी-बडी घाराओो के रूप मे, देश के बौद्धिक चिन्तन को एक सिचन देती रही। कालक्रम से वे छोटी -बडी बहुत सी धाराये तो आज बच नही पाई हैं +िन्‍्तु जैन भौर बौद्ध परपरा के रूप में उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष दृश्यमान है। भारतवर्ष मे जैन धर्म एक जीवित धर्म है। संल्यात्मक विस्तार की दुष्टि से कम विस्तीर्ण होतें हुए भी ग्रुण-निष्पन्नता की दृष्टि से उसका भपना महत्व है । बौद्ध सस्कृति भी कभी भारत के कोने-कोने प्तक फली यी । इतना ही नही, वह ससार के दूर-दूर के देशो तक पहुँच गयी थी। आज भी वह अनेक देशो मे' विद्यमान है। भारत भे भी आज उसका अस्तित्व तो है किन्तु उसका जो जीवित एवं सक्रिय रूप चतुनिष सध के रूप मे कमी था, वह नही रह पाया है। उसके अनेक कारण हैं, जिनमे मतिविस्तार हेतु अपने मूल को सर्वथा सुरक्षित बनाये रखने के आग्रह की न्यूनता भी एक है। इस पर कुछ विशेष कहना यहाँ अभी प्सित नही है। সাজনিক্ষ वात यह है कि श्रमण-सस्कृति की इन दोनो घाराओ ने राष्ट्रीय चेतना मे जो पवित्रता, सात्त्विकता, करुणा, मैत्री, सेवाशीलता, अनाग्रहवादिता इत्यादि उत्तम गुण जोडें, वे वास्तव मे अद्भुत 1 कितना षच्छा हो, ससार के लोग उनका भालबन करे, अनुसरण करे । भारतीय विद्या क्षेत्र का इसे परम सौमाग्य माना जाना चाहिए कि जैन और बौद्ध दोनो ही परपराओ का विपुल साहित्य आज हमे उपलब्ध है । यद्यपि उसे समग्र तो नही कह सकते, विलुप्त भी वहुत हुआ है, किन्तु जितना भी प्राप्त है, वह विस्तीर्ण और व्यापक है। इस साहित्य की अपनी अप्रतिम विश्षेषताएँ है। यह प्ाहित्य उस विचार- चेतना से सजित हमा है, जो इन्द्रासन से नही निकली, राजप्रासादो से नही निकली, बरन्‌




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now