आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन भाग - 3 | Aagam Aur Tripitak Ek Anusheelan Bhag - 3

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Aagam Aur Tripitak Ek Anusheelan Bhag - 3 by मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तत्त्व : आचार : कथानूयोग एक अवलोकन जा भारतीय विद्या के क्षेत्र मे, धर्म और दंत के क्षेत्र मे, अनेकानेक ऐसे विषय हैं, जिनपर पुष्कल शोघकार्य हो सकता है उस सदर्भ॑ मे भिन्न-भिन्न दिश्ाओ में विदूवज्गेन, अनुसन्धित्मु वृन्द कायं -सलगन है ! भारतीय बिद्या की दृष्टि से हमारे समक्ष मुख्यत दो वाराएं ह ब्राह्मण-पस्कृति एव श्वमण-सस्छृति । ब्राह्यण-सस्कृति वह है, जिसके पुरोधा ब्राह्मण वदोत्पन्न ऋषि महरि थे, जिन्होंने बेदी के अनुरूप इस सस्कृति का सर्जन किया । उसका मुख्य आधार ईश्वरवाद है। उसी के समकक्ष एक गौर सस्कृति पल्लवित हुई, जिसके पुरोधा मुख्यतः वे क्षत्रिय राजकुमार थे, जिन्होंने अत्यत वैराग्य के साथ भोगमय, कामनामय, लिप्सामय जीवन का परित्याग कर, अकिचनता का, त्याग का जीवन अपनाया । ईदवर के पृष्टि-कतूत्व भादि सिद्धान्तो मे उनका विवास नही था! गात्मा के परमात्मभाष में रूपान्तरण में उनकी आस्था थी, जिसे सिंद्ध करने की शब्ति आत्मा मे है । अपने ही उद्यम, यत्न या श्रम के वल पर व्यवित अपना उच्चतम उत्कर्ष सिद्ध करने मे सक्षम है, इस आदत के स्वायत्तीकरण के कारण यह्‌ सस्कृति भमण-सस्कृति' कलाई भथवा इसे यो मी कहा जा सकता है- ऐसे आदर्शों पर चलनेवाले त्याग-वैराग्यशील स्व-परकल्याण परायण साघक, श्रमण कह्दे जाते थे । उन्होने श्रममय, तपोमय, साधनामय आदर्शो पर आधारित जिस सस्कृति का निर्माण, विकास' भौर सवद्ध॑न किया, वह श्रमण सस्कृति है। पुरातनकालीन साहित्यिक आधारो से हम पाते है कि वह्‌ सस्कृति अनेक छोटी-बदी घारागो के रूप मे, देश के वीद्धिक चिन्तन को एक सिचन देती रही। कालकम से वे छोटी -बडी बहुत सी घाराये तो भाज बच नही पाई हैं न्तु जैन गौर बौद्ध परपरा के रूप म्र उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष वुक्यमान है। भारतवर्ष में जैन घर्म एक जीवित धर्म है। संख्यात्मक विस्तार की दृष्टि से कम विस्तीर्णं होते हए भी गण-निष्पन्तता कीवृष्टिसे उसका भपना महत्व है । बौद्ध सस्कृति भी कभी भारत के कोने-कोने प्क फली यी । इतना ही नही, वह ससार के दूर-दूर के देशो तक पहुँच गयी थी । भाज भी वह अनेक देशो में विद्यमान है । भारत मे भी गाज उसका अस्तित्व तो है किन्तु उसका जो जीवित एवं सक्रिय रूप चतुनिष सध के रूप मे कमी था, वह नद्दी रद्द पाया है। उसके अनेक कारण हैं, जिनमे मतिविस्तार हेतु अपने मूल को स्वेथा सुरक्षित बनाये रखने के आग्रहं की न्यूनता भी एक है। इस पर कुछ विशेष कहना यहां अमीप्सित नही है। प्रासंगिक वात यह है कि श्रमण-सस्कृति की इन दोनो घाराओ ने राष्ट्रीय चेतना मे जो पवित्रता, सात्विकता, करुणा, मैत्री, सेवाशीलता, अनाग्रहवादिता इत्यादि उत्तम गुण जोडे, वे वास्तव मे अद्भुत हैं। कितना भच्छा हो, ससार के लोग उनका आालबन करें, अनुसरण करें । भारतीय विद्या क्षेत्र का इसे परम सौमाग्य माना जाना चाहिए कि जैन और बोद्ध दोनो ही परपराओ का विपुल साहित्य आज हमसे उपलब्ध है । यद्यपि उसे समग्र तो नहीं कह सकते, विलुप्त भी बहुत हुआ है, किन्तु जितना भी प्राप्त है, वह विस्तीणं भौर व्यापक है। इस साहित्य की अपनी अप्रतिम विशेषताएँ है। यह साहित्य उस विचार- चैता से सजित हमा है, जो इन्द्रासन थे नही निकली, राजप्रासादों से नही निकली, वरन्‌




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