कम्पिला | Kampila

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Kampila by डॉ० धर्मवीर - Dr. Dharmveer

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुकार | तुमने उसे पुकारा, पर वितनी शालीनता से हाय ! जो बीच मे पत्थर की शिला सी है, तिरछी-बकी । यू, वहू आगे कैसे बढ़े, विकार बन कर, बताओ तो * साफ बात है--मतिरेक उसे न होगा कोई भी । यहं उतना ही भागे बढ़ेगा जितना तुम माग दोगौ, भौर वहाँ तक कोई शिथिलता न पाभोगी पुरुषाथ में । दुष्कर कुछ भी नही मस्तिष्क के पहाडो पर चढ़ना, हृदय के सागरो की गहराइयो मे उतर जाना भी । बुद्धि के बीहडो से गुजरता आ रहा है बिना रुके, सस्कारों के सहस्रां झाड झखाड याटे हैं, बिना थके । धूप का खिला हुआ फूल तुम्हारी आशाओ का मुरझाएगा नही, तेज घूप पड़ने से, गौर भी खिलने लगेगा, छिंटक कर रगदार, बहो तो, सुस्वादु बन, चारो ओर, पानी घिरे तो । मन की भाषा बोलो जिसे सारा विश्व जानता है, जो दार्शनिक से भी निशा को दिन कहलवा लेती है, प्रेम को आकार मिल जाएगा सुनते सुनते यू ही । 2 पाठ पढ़ाती जाओ--वह प्रेम का विद्यार्थी है । चुम्ही ने बताया है ससार फो तुलनाभो का सत्य, कि हृदय का मोह और सागर की लहरें रोके नही रुक्ती । तुम उसे अनुनिश लोरी गा कर सुलाया करोगी 1 शूलो मे निज प्यार को हलराया वरोगी 1 पुकार 17




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