कम्पिला | Kampila
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
806 KB
कुल पष्ठ :
88
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुकार
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तुमने उसे पुकारा, पर वितनी शालीनता से हाय !
जो बीच मे पत्थर की शिला सी है, तिरछी-बकी ।
यू, वहू आगे कैसे बढ़े, विकार बन कर, बताओ तो *
साफ बात है--मतिरेक उसे न होगा कोई भी ।
यहं उतना ही भागे बढ़ेगा जितना तुम माग दोगौ,
भौर वहाँ तक कोई शिथिलता न पाभोगी पुरुषाथ में ।
दुष्कर कुछ भी नही मस्तिष्क के पहाडो पर चढ़ना,
हृदय के सागरो की गहराइयो मे उतर जाना भी ।
बुद्धि के बीहडो से गुजरता आ रहा है बिना रुके,
सस्कारों के सहस्रां झाड झखाड याटे हैं, बिना थके ।
धूप का खिला हुआ फूल तुम्हारी आशाओ का
मुरझाएगा नही, तेज घूप पड़ने से, गौर भी
खिलने लगेगा, छिंटक कर रगदार, बहो तो,
सुस्वादु बन, चारो ओर, पानी घिरे तो ।
मन की भाषा बोलो जिसे सारा विश्व जानता है,
जो दार्शनिक से भी निशा को दिन कहलवा लेती है,
प्रेम को आकार मिल जाएगा सुनते सुनते यू ही ।
2
पाठ पढ़ाती जाओ--वह प्रेम का विद्यार्थी है ।
चुम्ही ने बताया है ससार फो तुलनाभो का सत्य,
कि हृदय का मोह और सागर की लहरें रोके नही रुक्ती ।
तुम उसे अनुनिश लोरी गा कर सुलाया करोगी 1
शूलो मे निज प्यार को हलराया वरोगी 1
पुकार 17
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