पहचान | Pehchan

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Pehchan by मोहन राकेश - Mohan Rakesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक ठुटूरा हुआ चाकू 5 “यह बयों पूछते हो ? तुम्हे पूछने की जरूरत नहीं है!” “अगर उस वक्‍त तुम्हारी जवान न खुल सकी, तो ?” “हो समभ लेना कि ऐसे हो बेकार को लड़की भी***इस लायक थी ही नहीं कि तुम उससे किसी तरह की रास्त रखते ।” “पर तुमने पहले हो घर मे वयों नहीं कह दिया ? ” “यह तुम जानते हो कि मैंने नही कहा ?” कहते हुए मिन्‍नी ने उसकी उंगलिया भ्रपनी उंगलियो में ले ली थी। “श्रभी तो तुम दूसरे के घर मे रहते हो । जब तुम भ्रपना पर ले लोगे, तो मैं” तव तक मैं ग्रेजुएट भी हो जाऊगी ।” एक वहते नल का पानी गली मे यहा से वहा तक फैला था। बचने की कोशिश करने पर भी दोनो के जूते वीचड से लयपथ हो गए थे। एक जगह 'उसका पांव फ़िसलने लगा तो मिल्‍नी ने बाह से पकड़कर उसे संभाल लिया। बहा, “ठीक से देखकर नही चलते न ! पता नहीं, भकेले रदकर कंसे भ्रपनी देखभाल करते ही *” अगर मिनी ने यह न कदा होता, तो वह उतना खुद-लुध न लौटता । उस हालत मे जरुर स्कूटर वे पैसे बचाकर दस से आया होता । शभ्रगर घर के पास के दायरे में पहुंचने तक उसे प्यास न लग आई होती ** उसने रुकूटर को वहां रोक लिया था--कि दस पंसे की बर्फ खरीद ले । मह्दीना जुलाई का था, फिर भी उसे दिन-भर प्यास लगती थी। दिन में कई- कई बार वह बर्फ सरीदने वहां पाता था । दुकानदार उसे दूर से देखकर हो पेटी खोल लेता था भौर वर्फ तोड़ने लगता था। 'पर तव तक भभो बफं की दुकान छुली नहीं थी । बर्फ सरीदने के लिए उसने जो परे जेद से निकाले थे, उन्हें हाथ में लिए. बहूं लौटकर स्थूटर के पास भाया, तो एक भौर धादमी उसमें बेठ 'दुका था । बहू पाप पहुंचा, तो स्कूटरदाले ने उसको तरफ हाथ बढ़ा दिया--जंसे कि वहा उतरकर बह स्कूटर साली कर चुका हो । “रूट झभी खासी नहीं है,” उसने स्टूटरवालेसे न कटुकर अस्दर बेठे पादमी से बहा ।




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