कस्य पहुदम वी प्रदेशाविभाक्थी | Kasaya Pahudam Vii Pradeshavibhakthi

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Kasaya Pahudam Vii Pradeshavibhakthi by पं. फूलचन्द्र शास्त्री - Pt. Phoolchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १९ ) पदनिक्षेप- ुजगारविरोषकौ पदनिक्तय कते दै । इस अधिकारे उकृष्ट वद्ध, उत्कृष्ट हानि, जघन्य बृद्धि ओौर जघन्य हानि तथा श्रवस्थितपद्‌ इन सवका आश्रय लेकर समुत्कीर्वना, स्वामित अर अल्पवहुस् इन तीन अधिकारोके द्वारा मूल श्रौर उत्तरप्रकृतियों के प्रदेशसत्कर्मका विचार किया गया है | ्द्धि- पदनिकेपविशेषको वृद्धि कहते ह । इस श्रधिकारमे यथासम्भव इद्धि रौर हानिके अवान्तर भदो तथा यथासम्भव अवक्तव्यविभक्ति और अवस्थितविभक्तिका झाश्रय लेकर समुत्कीतँना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भज्विचय, भागाभाग, परिसाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और ४ इन तेरह अधिकारोंके द्वारा मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेशसत्कमेका विचार किया गया है। सत्कर्थस्थान- मूल चौर उत्तर प्रछृतियोंके प्रदेशसत्कमैस्थान कितने हैं इसका निर्देश करते हुए मूलमें बतलाया है कि उत्कष्ट प्रदेशसत्कमैकां जिस प्रकार कथन किया ह उसी प्रकार प्रदेशसत्कमेंस्थानोंका भी कथन कर लेना चाहिये । फिर भी बिशेषताका निर्देश करते हुए प्रकृतमें प्ररुपणा, प्रमाण और अत्पबहुत्व ये तीन अधिकार उपयोगी बतलाये हैं । भीनाभरीनचूलिका पहले उत्कृष्ट, अनुत्छष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका विस्तारके साथ विचार करते समय यह बतला चाये है किं जो गुणितकर्माशिक जीव उत्कषेण द्वारा श्रधिकसे अधिक प्रदेशोंका सब्बय करता है उसके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है और जो क्षपितकर्माशिक जीव अपकर्षेण द्वारा कर्मग्रदेशोंको कमसे कम कर देता है उसके जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए यहाँपर यह प्रश्न उठता है कि क्या सब कर्मपरमाणुओं का उत्कषण या अपकर्षण होना सम्भव है, बस इसी प्ररनका समाधान करनेके लिए यहं ीनाीन नामक चूलिका अधिकार अलगसे कहा गया है । साथ ही इसमें संक्रमण चोर उद्यक अपेक्षा भी इसका विचार किया गया हे] इस सबका विचार यहाँपर चार अधिकारोंका आश्रय लेकर किया गया है | वे अधिकार ये हैं-- समुत्कीतना, प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीतना---इस अधिकारमें बपकषेण, उर्कषण, संकमण और जदयसे मीन चौर अभीन स्थितिवाले कर्मपरमाशुओंके अस्तित्वकी सूचना मात्र दी गह है । प्रकृतमें मीन शब्द्का अर्थ रहित और अभ्दीन शब्दका अं सहित है । तदनुसार जिन कम परमाएुओंका अपकर्षेण, उत्कर्षेण, संक्रमण और उदय होना सम्भव नहीं है उ अपकषे, उत्कषेण, संक्रमण और उद्यसे भीन स्थितिबाले कर्मपरमाणु माने गये हैं । श्नौर जिन कम॑परम।णुों के ये अपकषेण आदि सम्भव है बे इनसे अरमीन स्थितिवाले कमैपरमाणु माने गये हे । प्रूपणा--इस अधिकारे अपकर्षण श्नादिसे मीन ओर मीन स्थितिवाले कमपरमाणु कनन है इसका विस्तारे साथ विचार किया गया है । उसमें भी सर्वप्रथम अपकषंणकी अपेक्षा विचार करते हए बतलाया गथा है कि उद्यावलिके भीतर स्थित जितने कमेपरमाणु हँ वे सव झअपकर्षेणसे भहीनस्थितिवाले और शेष सब कर्मपरमाणु झपक्षेणसे अझभीन स्थितिवाले हैं । तात्पये यह है कि उद्यावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुोंका पकषेण न होकर वे क्रमसे यथावस्थित रहते हुए निजैराको प्राप्त होते दै, इसलिए वे अपक्षेणके अयोग्य होनेके कारण अपकपेएसे भीन




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