दैत्यवंश | Daityavansh

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Daityavansh by हरदयालु सिंह - Hardayalu Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) मुसकानि पै सुन्दर वा सिस की, मनि मानिक सौ मन वारं कौऊ। रुगि जाड न दीढि कहूँ यहि के; भरि सैन न वार निहारे कोऊ ॥। पलना पर पारकं वा सिसु को, तिय मन्द ही मन्द मुखां कोऊ । हलरावनि जौ दुलरावनि मे, अनुराग कै रागनि गावं कोऊ 1 पृचकारि कं ताहि हंसादवे कौ चूटकोनि प्रवौन वजावं केञ। पुनि रोवत जानि कं अक मैल, अपनो पय वाम पियावं कोऊ) वामन शने शनं वढता हँ, तुतली वौली वोलने च्गता ह, गुरुजन को हाय उलाकर प्रणाम करना सीख जाता ह, सागोपाग वेदो का अध्ययन करता हं, सामगान में विशेष व्युत्पन्न हो जाता है । वामन का सगीत कितना प्रभा- वोत्पादक हू ? जड-चेतन पर उसका कैसा असर पडता हैं *? देखिए-- वीने गहँ सुर सुन्दरी त्यो कुसुमावली टूटे मेदारनि दाम की । वावरी कोऊ इती वनि जाय, नही रहिजाय तिया कोऊ कामकी) कंसेहु मानं मनाये नही, विसरं सुधिह बुधि यो सुर-वाम की) तुग॒तरगे उठे हिय-सिन्धु मे, गावन लगे रिचा जवै साम की ॥। वार-सौदयं के वणन में हमारे कवि कौ वृत्ति कुछ अधिक रम गर्ह) इसमें उसे सफलता भी काफी मिली है । वामन ही नही, उपा के वालरूपं का उल्लेख करने में भी उसनें पर्यंवेक्षण और अनभूति की सूक्ष्मता का खासा परिचय दिया हं। उपा लडकी हँ । वह्‌ गुरु-गृह पढने को जाती ह पर पठती क्या हं-- 'एक' नौ' सात प' 'ना' मा' पटे, कवौ लेखनी कौ उकरूटी मसि वोर ~~




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