धर्मामृत (अनगार ) | Dharmamrit (Anagar)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
788
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना १५
क्रमकथयनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः!
अपदेऽपि संपरतृ्तः प्रतारितो मवति तेन दुर्मतिना ॥१९॥
जो अल्पमति उपदेशक मुनिषर्मको न कहकर धावकधर्मक उपदेह देता है उसको जिनागममें दण्डका
पात्र कहा है । क्योंकि उस दु्बुद्धिके क्रमका भंग करके उपदेश देनेसे अत्यन्त दूर तक उत्साहित हुमा भी
शिष्य श्रौता नुच्छ स्थानमे ही सन्तुष्ट होकर ठटगाया जाता ह । अतः वक्ताको प्रथम मुनिधर्मका उपदेश करना
चाहिये, ऐसा पुराना विधान था ।
इससे अन्वेषक विद्वानोके इस कथनमें कि जैन घर्म और बोद्धघ्म मूलतः साधुमार्गी धर्म थे यथा्थता
प्रतीत होती है ।
लोकमान्य तिलकने अपने गीता रहस्यमे लिखा है कि वेदसंहिता और ब्राह्मणों में संन्यास आश्रम
आवश्यक नहीं कहा गया । उलटा जमिनिने बेदोका यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गृहस्थाश्रममें रहनेसे ही
मोक्ष मिलता है । उन्होंने यह भी लिखा है कि जन ओौर बौद्धधभके प्रवर्तकोने इस मतका विशेष प्रचार किया
कि संसारका त्याग किये बिना मोक्ष नही मिलता । यद्यपि शंकराचार्यने जेन ओर बौद्धोका खण्डन किया
तथापि जन भौर बौद्धोने जिस संन्यासपर्मका विशेष प्रचार किया था, उसे हो श्रौतस्मार्त संन्यास कहकर
कायम रखा ।
कृ विदेनी विद्वानोका जिनमे डा० जेकोवी' का नाम उल्लेखनीय है यह मत हैं कि जैन भर बौद्ध
श्रमणोके नियम ब्राह्मणघर्मके चतुर्थ आश्रमके नियमोंकी ही अनुकृति हैं 1
किन्तु एतरेश्षीय विद्वानोका एेसा मत नह है क्योकि प्राचीन उपनिषदोमे दो या तीन ही आश्वमोका
निर्देश मिलता है । छान्दोग्य उपनिषदे अनुसार गृहस्या्षमसे ही मुक्ति प्राप्त हो सक्तो ह । शतपथ ब्राह्यणमे
गृहस्थाश्रमकी प्रलमा है भौर तैँत्तिरीयोपनिषद्में भी सन्तान उत्पन्न करनेपर ही जोर दिया है । गोतम धर्मं-
सुत्र ( ८1८ ) में एक प्राचीन आचार्थका मत दिया है कि वेदोको तो एक गृहस्थाश्रम ही मान्य है । वेदमें
उमीका विधान ह अन्य माश्रमोका नही । वाल्मीकि रामायणमे संन्यासीके दर्शन नहीं होते । वानप्रस्थ हो
दृष्टिगोचर होते है 1 महाभारतमे जव युधिष्ठिर महायुद्धके पश्चात् सन्यास लेना चाहते है तद भीम कहता है-
शास्म किला हँ कि जब मनुष्य संकटमें हो, या वृद्ध हो गया हो, या शत्रुओसे त्रस्त हो तब उसे सन्यास ठेना
चाहिए । भाग्यहीन नास्तिकोंने ही संन्यास चलाया है ।
अतः विद्वानोका मत है. कि वानप्रस्थ और संन्यासको वैदिक भायोनि अवैदिक संस्कृतिसे लिया है
( हिन्दूषमं समीक्षा पृ १२७ } अस्तु,
जहाँ तक जेन साहित्यके पर्यालोचनका प्रदइन है उससे तो यही प्रतीत होता है कि प्राचीन समयमें
एक मात्र अनयार या मुनिधमंका ही प्राघान्य था, श्रावक घम्म आनुष॑ंगिक था । जब मुनिधर्मको घारण करने-
की ओर अभिरुचि कम हुई तब श्रावक धर्मका विस्तार अवश्य हुआ विन्तु मुनि घर्मका महत्त्व कभी भी
कम नहीं हुआ, क्योकि परमपुरुषार्थ सोक्षकी प्राप्ति मुनिधर्मके बिना नहीं हो सकती । यह् सिद्धान्त जेन
धर्ममें आज तक मी अक्षुण्ण हैं ।
५. घामिक साहित्यका अनुशीलन
हमने ऊपर जो तथ्य प्रकाशित किया है उपलब्ध जैन साहित्यके अनुशी लनसे मो उसीका समर्थन
होता है ।
सबसे प्रथम हम आचार्य कुन्दकुन्दको लेते है । उनके प्रवचनसार और नियमसारमें जो आचार
विषयक चर्चा है वह सब केवल अनगार धर्मसे हो सम्बद्ध है । प्रवचनसारका तीसरा अन्तिम अधिकार
से, वु ई, जिल्द २० को मस्तावना टू, १२
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