गऊ - वाणी | Gaoo - Vani

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Gaoo - Vani by ऋषभ चरण जैन - Rishabh Charan Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) डालती हैं । आत्मासे तो उनका मिलाप कहीं दुर श्रम्दर जाकर होता है । धर यह भी नहीं हे कि आत्मा ही चनलुद्ारा बाहर निकल खड़ा होता है ओर यदि ऐसा दो भी तो भी उसको दशन केखे हो सक्ता है ? अतः जव आत्मा जहांक्ा तहां है श्रौर बाहिरी दुनियां मी जहांकी तदां है श्नौर केवल कुड सुद्म परमाण ही वाहरसे आत्मा तक पहुंचते हैं तो क्या यह करश्पा नहीं है कि आत्मा भीतर बेठे बेठे ही सब कुछ देख सक्ता है । यथाधेता यह है कि दर्शन मी. जोचद्रव्यशी पर्याय है, बाहिरी इन्ट्रियोलेजक सामग्रीके श्रध पर जो परिदतन आत्मामं दोत्ता हे उसी अनुतवा नाम दीन है। श्योर श्रव अगर तुम दस वःत पर विजार करोगे क्रि यह परिवनन आत्मामें सबे देश नहीं ह!ता है बल्कि केदल उपक पक दणमें होता हे ओर वह भी उतने हीमें जितनेसे चक्ञ॒ इन्द्ियकी भीतरी सूचष्म नाडियोंका सम्बन्ध है तो तुप्र इस वातकों सहजमें दी पमक जाधारो कि यदि प्णत्माकीं प्रकाशशक्ति पक देश ही चीं वटक सर्वाय व सच देगप्रे नागतं हो जाय तो कितना पूर्व व नन्त दर्शन उसको होगा ! अतः प्रत्येकः आल्मा स्वभावसे हौ शन्त दर्शन गुणसे भी पूर्ति है श्रोर घडी श्रदुभुत बात यह है कि अन्तरीक्ष दर्शन संसार के ॥ पदाथा ज्याश्म त्या जदा तदा दर्शाता है मेते तिनय कियाः--कि माता यतोत भली प्रकार समस गया कि हर प्रासा स्वभावसे शमर श्रोर स्यश्च हे परः श्रव में यह जानना चाहता हं कि श्रात्माक्रो अविनाशी सुख भी कया किसी भांति प्राप्त हो सकता है ?




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