जैनतत्वमीमांसा | Jain Tatvamimansa
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
464
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आत्मनिवेदन १३
ग्रह अच्छी तरहसे जानते हँ कि आगम सम्मत व्यास्याभओकिं भाधार पर
यदि हम चर्चा करेंगे तो हमें सफछता नहों मिलेगी । इसीसे उन्होने
आम जनताके चित्ते द्विविधा उत्पन्न करनेका मागं अंगोकार किया
है। अस्तु,
इस प्रसंगसे हम अपने सहयोगी विद्वानोंको लक्ष्यकर एक बातका
निर्देश भव्य कर देना चाहते हैं। वह यह कि वे जिनागमके मुख
हैं। अतः उन्हें लोकरीतिको गौणकर ही आगमके अनुसार समाजका
मार्गदशंन करना चाहिये। भगवान् अरहन्तदेवने अपनी वीतराग
वाणी द्वारा वीत्तराग धमंका ही उपदेश दिया है। वह मात्माका
विशुद्धरवरूप है, इसलिये उसके हारा ही परमाथंकी प्राप्ति होना
सम्भव है । परमा्थंस्वरूप आत्माको प्राप्तका अन्य कोई मार्ग नहीं
है। ज्ञानमार्गकी प्राप्तिका और ज्ञानमार्गका अनुसरण करनेवाले जीवके
लिये क्रमसे भागे बढ़कर अरहन्त भौर सिद्ध अवस्था प्राप्त करनेका
यदि कोई समर्थ उपाय है तो वह एकमात्र ज्ञानमार्गपर आरूढ होकर
स्वभावरे शुद्ध त्रिकाली ज्ञायक आत्माका भप्रमादभावसे अनुसरण करना
ही है। भाचायं अमृत्तचन्द्रके शब्दोंमें इस तथ्यको इन दाब्दोंमें हृदयंगम
किया जा सकता है कि मोक्षमार्गकी प्रारम्भिक भूमिकामें ज्ञानघारा
भौर कमं (राग) धाराका समुच्चय भले ही बना रहे, किन्तु उसमें
इतनी विद्षेषता है कि ज्ञानधारा स्वयं संवर निर्जरास्वरूप है, इसलिये
वही साक्षात् मोक्षका उपाय है। मौर कमंधारा स्वयं बन्धस्वरूप है,
इसलिये उसके द्वारा संसारपरिपाटी बने रहनेका ही मार्ग प्रशस्त होता
है। परमाथंसे न तो वह मोक्षमार्ग है और न ही उसके लक्ष्यसेसाक्षात्
मोक्षमागंकी प्राप्ति होना ही सम्भव है ।
कुछ महानुभावोंकी यह धारणा है कि प्रारम्भमें जो सम्यग्दर्शन-
ज्ञानस्वरूप मोक्षमागंकी प्राप्ति होती है वहु रागभावकी मन्दतासे ही
हाती है । किन्तु मिथ्याहष्टि जीवके अपृवंकरण आदि परिणामोके कालमें
जा गुणश्रेणिनिजंया आदि होतो है वहु रागको मन्दतासे न होकर
केरणानुयोगके अनुसार भपूणंकरण आदि परिणाम विदोषके कारण प्राप्त
हुई विशुद्धिके कारण होती है । इन परिणामोका एसा ही कुछ माहात्म्य
है कि इस जीवके उन विशुद्धिरूप परिणामोंके होनेमें न तो गति बाधक
होती है, न लेश्या बाधक होतो है भौर कषाय ही बाधक होती है । इसी-
से स्पष्ट है कि वे सातिदाय परिणाम हैं। उन्हे कषायकी मन्दतारूप
कहना अध्यात्मके विरुद्ध तो है ही, करणानुयोग भी इसे स्वीकार नहीं
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