दृष्टि और दिशा साहित्यिक निबन्ध | Drishti Aur Disha Sahityik Nibandh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द साहित्यिक निबन्ध से कवि उसी प्रकार निन्दित होता है, जिस प्रकार दुष्ट पुत्र की प्राप्ति से पिता ।” दोष का सवेधा त्याग कवि का प्रथम कर्तव्य है । वामन के टीकाकार गोपेन्द्र त्रिपुरहर भूपाल ने कविता पर बधू का झ्रारोप किया हैं । उसके श्रद्ध की रूपक-योजना इस प्रकार है --* कृति वधू वाक्य पी ग्र गुम्भ मूति वस्तु -- दिर ग्रलंकार - परिष्कार रीति प्राण गुर गुर बामन ने रीति को ही काव्य की आत्मा कहा है परन्तु टीकाकार ने रीति को प्रांगा स्वीकार किया है । कवि : व्युत्पत्यथ--राजशेखर ने “कवि ब्द पर भी विस्तृत विचार किया है 13 उनकौ मान्यता के ्रनुसार कवि का कर्थं ( कृति ) ही काव्य है ।* राजशंखर ने कवि शब्द की व्युत्पत्ति क्व्‌ (क्वृयाक्वृ) धानु से मानी है । इसकी व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में एक श्रौर मत है : कुड (शब्दे ) धातुम (इ) प्रत्यय करके यह्‌ दाब्द व्युत्पन्न हुमा है । “कवृू' धातु का श्र्थ है “वर्ण । वेगं रंगवाची है । वर्ण से वर्णन अर्थ हो सकता हैं । राजशेखर ने इसी रथ में इसका प्रयोग किया है । वणं के थे झ्रथ॑ हो सकते हैं : रंग, रंगना, विस्तार, गुण, कथन, वर्गान, स्तुति, भ्रक्षर, स्वरूप झरादि ।* वेसे कवि के लिए दाब्दाथक “कु-धातु श्रौर वर्गाथिक “कबृू-दोनों ही उपयुक्त हैं । शब्द की अ्रपेक्षा वर्णन वाला प्रथं ही श्रधिक उपयुक्त टै) कवि : प्रयोग-परम्परा--ऋषग्वेद में “कवि शब्द प्रत्यन्त व्यापक प्रथं मे प्रयुक्त है ।° वेदिक कवि' ऋषि था, प्राप्त था; मेघावी था । स्वयंभू परमेश्वर मनीपी श्रौर १. तदल्पमति नोपेदयं काव्ये दुर्ष्ट॑ कर्थचन 1 विलबमणा हि काव्येन दुम्ुतेनेव निन्यते ।। काव्यालङ्कार, १।११ २. काव्यालङ्कार सूतरषृत्ति कौ रीका : प्रस्तावना । २. (कवि शब्दश्च क्र वै इत्यस्य धातोः काव्य कर्मणो रूपम्‌ । काय्यैक रूपत्वाच्च सारस्वतेयेऽपि काव्यपुरुष इति भक्त्या प्रथुव्यते ।' ४. कवेभीवोऽथवा करम काव्यं तज निरुच्यते । जिनतेन, महापुसस्‌, १।६४ ५. उणादि प्रकरण के कच्‌ इः? (४। १३८ ), इस सूत्र से “इ” प्रत्यय । ुढधातुम्वादि गण मेँ परित है । अदादि तथा वेदादिगण में क्रमशः कु तथा कुड धातु शब्द” झ्र्थ में पठित है । सिद्धान्त कौमुदी, धातु पाठ तथा श्रमरकोष, नानार्थवर्ग; इलो० ४८ । ७, कवि शशासुः कवयोऽदन्धाः । ऋक. ४।२।१२ कविः कवित्वा दिवि रूपभास्तजत्‌ । १०।१२४।७ कविमिव प्रचेतस्तं यं देवासः । ८।८५।२ हन्द्रमग्नि कविच्छदा । ३।१२।३ त ५




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