श्री समयसार कलश | Shri Samayasar Kalash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
291
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand){ १९)
द्वादशाजज्ञान श्रौर शुद्धात्मानुमव में क्या शम्तर है इसका जिन सुन्दर शब्दोमें कविवरने
कलश १४ की टीका में स्पष्टीकरण किय। है वह ज्ञातब्य है--
“हस प्रसङ्गमे श्रौर भी संशय होता है कि दादशाङ्गज्ञान कख श्रपूवं लघ्व है।
उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि द्वादशाज्ञज्ञान भी बिकल्प है। उसमें भी ऐसा
कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमाग है, इसलिये शुद्धात्मानु भरूतिके होनेपर शास्त्र पढ़नेकी
कुछ 'झटक नहीं है ।'
मोक्ष नानेमें द्रव्यान्तरका सहारा क्यों नहीं हे इसका स्पष्टीकरण कविवरने कलश १५ की
रीका इन शन्दोमे फिया है--
“एक ही जीव द्रव्य कारणरूप मी श्पनेमे हौ परिरमता है ओर कासैरूप भी
श्मपनेमें परिणमता दहै । इस कारण मोक्ष जानेमें किसी द्रव्यान्तरका सहारा नहीं है,
इसलिये शुद्ध आत्माका अनुभव करना चाहिये 1!
शरीर भिन्न दै श्रौर श्रात्मा भिन्न है मात्र एसा जानना कार्यकारी नहीं । तो क्या हे इसका
स्पष्टीकरण कलश २२ की टीकामें पढ़िये -
'शर्रीर तो अचेंतन हैं, विनश्वर है । शरीरसे भिन्न कोड तो पुरुप है ऐसा जानपना
एसी प्रतीति मिथ्यादृष्रि जीवके भी होती हैं पर साध्यसिद्धि ता कुछ नहीं । जब जीव
द्च्यका ट्रब्य-सुण-पयायस्वरूप प्रत्यक्त आस्वाद ाता हैं तब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
है, सकल कर्मतय मोक्त लचगा भी है ।'
जो शरीर सुख-दुश्ख राग-देष-मोहकी त्यागबुदधिको कारण श्रौर चिद्रप श्रात्मानुमवकौ
कार्यं मानते ह उनको समस्तं हुए कविवर क. २६ मे क्या कहते रै यदह उन्दीके समपेक
शब्दों में पढ़िये --
'काई जानेगा कि जितना भी शरीर, सुख, दुख, राग, द्वेष, मोद् द उसकी
त्यागचुद्धि कुल झन्य ह--कारगारूप हैं। तथा शुद्ध चिदुरूपमात्रका अनुभव कछ श्रन्य
है--कायरूप हैं । उसके प्रति उत्तर इस प्रकार ह् किं राग, द्वेष, मोद्, शरीर, सुख, दुःख
ब्यादि विभाव पयायरूप परिणति हुए जीवका जिस कालमें एेसा अशुद्ध परिणामरूप
संस्कार छूट जाता हैं उसी कालमें इसके अनुभव है। उसका विवरण--जों शद्धचेतना-
मात्रका आस्वाद श्राये बिना अशद्ध भावरूप परिणाम छूटता नहीं ओर अशुद्ध संस्कार
छूट बिना शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता नहीं । इसलिये जो कुछ है सो एक दी काल, एक
हो चस्तु, एक हो ज्ञान, एक ही स्वाद हैं ।'
जो समते हैं कि जैनसिद्धान्तका बारबार श्रम्यास करनेसे जा दृढ प्रतीति द्ोती हे
व नाम श्रनुभव है । कविविर उनकी इस घारणाकों कलश ३० में ठीक न बतलाते हुए,
लिखते हैँ--
कोर जानेगा कि जैनसिद्धान्तका बारबार अभ्यास करनेसे टद् प्रतीति होती है
उसका नाम अनुभव है सो ऐसा नही है । सिध्यात्वकमका रसपाक मिटने पर सिथ्यात्व-
भावरूप परिणमन मिटता है. तो चस्तुस्वरूपका प्रत्यक्तरूपसे 'श्ास्वाद ्राता है, उसका
नाम अनुभव है ।
विधि प्रतिषेघरूपसे जीवका स्वरूप क्या है इसे स्पष्ट करते हुए कलश २३ की टीका में
बतलाया दे-
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