सर्वार्थसिद्धि: | Sarvarth Siddhi

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Sarvarth Siddhi by पं. फूलचन्द्र शास्त्री - Pt. Phoolchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो छन्द 1. सम्यादनका कारण (प्रथम संस्करण से) सर्वार्थसिद्धिको सम्पादित होकर श्रकाशमें आनेमें अत्यधिक समय लगा है। लगभग आठ नौ वर्ष पूर्व विशेष वाचनके समय मेरे ध्यानमें यह आया कि स्वंधिसिद्धिमें ऐसे कई स्थल हैं जिनके कुछ अंशको उसका मूल भाग माननेमे सन्देह होता है । किन्तु जब कोई वाक्य, वाक्यांश, पद या पदांश लिपिकारकी असावधानी या अन्य कारणसे किसी प्रन्थका मूल भाग बन जाता है तब फिर उसे बिना आधारके पृथक करनेमे काफी मडचनका सामना करना पड़ता दे । सर्वाधंसिद्धिकि वाचनके समय भी मेरे सामने यह समस्या थी और इसीके फलस्वरूप इसके सम्पादनकी ओर मेरा शुकाब हुआ था । यह तो स्पष्ट हो है कि आचाय पूज्यपादने तच्वा्षेसूत्र प्रथम अध्यायके निर्देशस्वाभित्व' भौर 'सत्सं्था' इन दो सूत्रोकी व्याङ्या षट्खण्डागमके आधारते की है 1 इसका विचार मागे चलकर प्रस्तावनामें हम स्वतन्त्र प्रकरण लिखकर करनेवाले हैं । यहाँ केवल यह देखना है कि इन सूत्रोकी व्याख्यामे कहीं कोई शिथिलता तो नहीं नि भरायी गौर यदि शिचिलताके चिल्ल दृष्टिगोचर होति हँ तो उसका कारण क्या है ? “निदेहस्वामित्व--' सूत्र की व्याख्या करते समय आचार्यं पुञ्ययादने चारो गतियोके आश्रयसे सम्य- ग्दर्शनके स्वाभीका निर्देश किया है। वहाँ तियंचनियों में क्ञायिक सम्यर्दर्शनके अमावके समर्थनमें पूर्व मुद्रित प्रतियोमिं मह वाक्य उपलब्ध होता है-- कल इत्पक्ते मनुष्य: कमेंसूमिज एवं दर्शनमोहलपणप्रारम्भकों मवति । शपणप्रारम्भकालात्पुब तिश बदधप्यष्कोऽयि उत्तमनोगभूमितिरयक्पुरषेष्येयोत्यश्चते न तिमंक्स्त्रीदु ; दब्यबेदस्त्रीणां सासां कायिका संभवात्‌ । एवं तिर्जामप्यपर्याप्तकानां क्ायोपदामिकं शेयं न पर्याप्तकानाम्‌ । दिमम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परामोंके आगममें इस प्रकारके नियमका निर्देश है किं सम्यग्दृष्टि मर कर किसी भी गतिके स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न नही होता । किन्तु श्वेताम्बर जामम शाताधर्मकथा नामके छठे अंगमे मत्लिनाय तीर्थंकरकी कथा^के प्रसंगसे बतलाया मणा है कि मल्लिनाष तीधंकरने अपने पिछले महालके भवे मायाचारके कारण रत्रीनामकमं ोक्रको निष्पन्न किया था जिससे वे तीर्थंकरकी पर्यायमे स्वी हए । गौर दसी कारण पीशेके श्वेताम्बर टीका- कारोने उक्त नियमका मह खुलासा किया है किं “सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री नहीं होता यह बाहुल्पकी अपेसा कहा है।” यहाँ हमें इस कथाके सन्दर्भ पर विचार न कर केवल इतना ही देखना है कि यह स्त्री नामक गोस कया वस्तु है। क्या यह नौ नोकषायोंमेंसे स्त्रीवेद नामक नोकवाय है या इस द्वारा अज़ोधाज़का निर्देश किया गया है? जब महावलकी पर्यायमें इस कर्मका बन्ध होता है तब वे तीर्थंकर प्रकृतिका अन्ध करनेवाले सम्यर्दृष्टि साधु ने और सम्यग्दुष्टिकें स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता ऐसा कमेंशास्त्र का नियम हैं क्योंकि स्वीवेद- का बन्ध दूसरे युगस्थान तक ही होता है। इसलिए यह बँघनेवाला कर्म स्वीवेद नामक नोकचाय तो हो नहीं सकता । रही अज्ञोपाजुकी बात सो एक तो अज्ञोपाज़ में ऐसा भेद परिलक्षित नहीं होता । अचान्तर भेदकौ 1: देखो अध्ययन 81 2. सए ण॑ से सहब्बले अणयारें इमेण कारणेणं इत्विणामकम्मं गे य॒दिष्वंतिसु । ज्ञाता० पु 23191




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