आवश्यक - दिग्दर्शन | Aavashyak - Digdarshan

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Aavashyak - Digdarshan by अमरचन्द्र - Amarchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मानैव जीवन का महत्व द मतो सदीशरत्सु सवणे शलो; भवेषु मनुष्यमवः प्रधानम्‌ ॥ --( श्रावकाचार १। १२) महाभारत में व्यास भी कहते हैं कि “ाओ, मै व॒म्दें एक रदस्य की बात बताओ} यह अच्छी तरह मन में दृढ़ कर लो कि संसार में . मनुष्य से बढकरं श्रौर कोई श्रेष्ठ नहीं है ।” गुह्य ब्रह्म तदिदं श्रवीमि, नहि मानुषात्‌ भ्रष्ठतरं दहि किचित्‌] --महाभारत वैदिक धर्म ईश्वर को कर्ता मानमै वाला संपदायदहै। शुकदेव ने इसी भावना में, देखिए, कितना सुन्दर वर्णन किया है, मनुष्य की सब- श्रेष्ठता का । वे कहते है कि श्वर ने अपनी श्रात्म शक्ति से नाना प्रकार की सृष्टि दक्ष, पशु, सरकने वाले जीव, पत्ती, दंश आर मछली को बनाया । किन्तु इनसे वह तृप्त न हो सका, सन्तुष्र न हो सका । श्राखिर मनुष्य को बनीया, श्रौर उसे देख श्रानन्द मै मय हो गया | ईश्वर ने इस बात से सन्तोप माना कि मेय श्रौर मेरी खष्ि [४ म मने वाला मनुष्य ज्व तैयार हो गया दै। भारतीसझ-पुराखि, विविधान्यजया55त्मशक्त्या, - ˆ ` बृत्तान सरीखपं-पशुन्‌ खग-दश-मत्स्यान्‌। माक टी. व मुजं विधाय, कि ननह्यावयोधयि मुदमाप देयः ॥ कि भ प -“ -मागवत = व ^, स्थान पर इन्द्र कह रहा है कि भाग्यशाली है वे जो दो हाथ वाले मष्य दै । मुके दो हाथ वज्ञे मनुष्य के प्रति खहा है ॥




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