विश्राम सागर | Vishram Sagar

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Vishram Sagar by पं ज्वालाप्रसाद मिश्र - Pn. Jvalaprsad Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कथाप्रसंगवणन-अ० (११) | सुखदुख स्तगनरकके भेदा। गमनागमन कहो विधिनेदा ॥ | / माया ब्रह्म जीव गति नाना । हरिहरजनके चारित महाना ॥ । अजअव्यक्तमनादिअकाया । केद्विविषि सगुण भये सुरराया ॥ | | चारिखान जग जीव कहाये । उत्पततिलयपालन कविगाये ॥ | | योग यज्ञ जप तप ब्रत दाना । वर्णाध्रमके भेद महाना ॥ | | मित्र मित्र अब आएबसानडु। हमें सदा अठुगामी जानहु॥ | । शाख्र विना नाहिं सपनेहु ज्ञाना । ज्ञानयिना नहिं भक्ति बखाना ॥ | यक्तिथिना सुख दोय न कबहीं । ताते हम व्णहु यह सबही॥ | सो शिरमार सदशहे भारी । दरिगुणचरण न ने विचारी ॥ | । जो नहिं सुने ईश गुणब्रामा । सोश्तिअहिविलसमदुखधामा ॥ | | नेन जो हारिदर्शन नहिं करहीं । मोरपंखसम कवि उच्चरहीं ॥ | | जो कर हरिसेगा नहिं करहीं । तेमलछिप्त पाए नित धघरही॥ | । जो'जिह्ा नहिं दरिगणकरई । सो दादुर सम निश्चय अहई॥ | | जेपगनहिं तीरथहित जाहीं। जानहु सो स्तंभ सदाही॥ | | नहिं आई । सो शवसम जानहु भयदाई॥ | दोहा-यहि तलुकर फल जानिये; जब उपजै हारिमक्ति। | महिमा सुनिये गाइये; पहये. निश्चय सुक्ति॥ | । सुनिअस वचन पायों । वेदव्यासपद पुनि शिरनायों ॥ | कड़े क्षणमगन सु्ददे नैना। पुनि बोले ऋषिसे शूदुबेना ॥ | प्रश्न ठुम्हार सुदावन । कहत सुनतजगकोकरपावन ॥ | चन्य घन्य हुमसुनिवडमागी । कीन्हेउ प्रश्न जगतरितिछागी ॥ | दर्टििकया जगतसुखदेनी । अवनाशन सुरलोकनिसेनी ॥ | | मदामोदतमनाशनकारी .. । भक्तन देत पदारथ चारी॥ | । अभिमतदाता । गुरुपद्रजसम झत अवदाता ॥




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