हिंदी साहित्य विमर्श | Hindi Sahitya Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सादित्यकी गति ७ भावना निहित रहती है जिसके कारण साहित्यका काठ-निर्देश किया जाता है | सत्यको अनन्त ओर धर्मको अनादि माननेवारे यह भू जाति हैं कि अनन्त सत्य और अनादि धमं केवछ भावनाक्रे दी रूपमें विद्यमान हैं। मचनुष्योंके छोकमें न तो अनन्त सत्य है, और न अनादि धर्म है । मनुष्य समाज कुछ ही सत्योंको लेकर व्यस्त रहता है । जो धर्म उसके समाजमें प्रचढित है उसका आदि है और अन्त भी | संसारम सत्य वदते रहते हैं, और धर्म थी परिवर्तित होते हैं । यह सर्वथा संभव है कि जिसे आज हम सत्य समकर अपनाये हुए दै, उसीको कर भिश्या ससभकर छोड़ ठं । सत्यका यह्‌ स्वरूप देश और काठसे ही परिछ्लिन्न रदता है अथवा यह कहा जा सकता है कि देश ओर कारे दी सत्यके इस रूपकी अभि- व्यक्ति होती है। जब दस यह कहते हैं कि सत्य सवंन्यापक दै, अविनश्वर दे, तब हस केवल सत्यकी भावनाका दी विचार करते हैं। यह भावना मनुष्यमात्रमें है । सभी समय और सभी देशोमिं यह भावना विद्यमान रहती है । सनुष्यकी उन्नतिका मूछ यही है । सत्यके प्रति उसका जो आग्रह है उसीके कारण उसमें जिज्ञासा है इसीकी प्रेरणासे वह सदेव परीक्षामे निरत रहता दै |: इसमें सन्देह नदीं कि सत्यकी यह भावना स्वव्यापक है | परन्तु जब यह भावना प्रकट होती है तब वह किसी देश-विशेष- के किसी काल-विशेषमें किसी जाति-विशेषके सचुष्योंमें ही प्रकट




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