प्राप्त - परीक्षा | Prapt - Pariksha

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Prapt - Pariksha by दरबारीलाल जैन - Darabarilal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ट श्राप्रपरीत्ता-स्वोपक्षटीका उससे यह भ्रम नहीं होता कि कुन्दकुन्द केवलज्ञानीको मात्र आत्मज्ञानी ही मानते हैं । क्योकि वह तो कहते है कि जो सबको नदीं जानता वह कको जान ही नही सकता । उनके मतसे श्रात्मज्ञ और सर्व्ञ ये दोनों शब्द दो विभिन्न दृष्टिकोणोंसे एक ही अथंके प्रतिपादक हैं । श्वन्तर इतना है कि 'स्रवेज्ञ' शब्दमें सब मुख्य हो जति हं श्रात्मा गौर पड़ जाती है जो निश्चयनय को अभीष्र नद्दीं है किन्तु “ात्मज्ञ' शब्दमें आत्मा दी मुख्य ह शेष सब गौण हैं । अतः निश्वयनयसे आत्मा आआत्मज्ञ है और ग्यवहारनयसे स्वेज्ञ है । आध्यात्मिक दर्शनमें आ्रात्माकी श्रखर्डता, श्ननश्वरता, श्रभेधता, शुद्धता श्रादि ही प्राह्यहै क्योकि वस्त॒स्वरूप ही वैसा ह । उसीको प्राप्त करनेका प्रयत्न मोक्ष- मागके द्वारा क्रिया जाता ह । चतः प्रत्यक सम्यग्दष्टि- जिसे निश्चयकी भाषामें च्रात्म- हृष्टि कहना उपयुक्त हागा--श्रात्माको पृंरूपम जाननेका श्रौर जानकर उसीमें स्थित होनेका प्रयत्न करता ह । उस प्रयत्ने सफल होनेपर ही वह्‌ सर्वज्ञ सवद्र्श हो जाता है । श्रत: श्रात्मज्ञतामेसे सवज्ञता फलित होती है । सवेज्ञतारमेसे श्रात्म्ञता कलित नदीं होती; क्योंकि मुमुक्तका प्रयत्न श्चात्मक्षताके लिये होता है सवक्ञताके लिये नहीं । श्रत: चध्यात्मद शनमें केवलीको आत्मञ्ञ कहना ही वास्तविक है भूतार्थं है और स्वज्ञ कहना श्रवाम्तविकं है श्र भृता्थ ह । भताथेता आऔर अभता्थका इतना ही अभिप्राय ह । इस नयटृष्टिको भुलाकर यदि यह श्रथ निकालनेकी चेष्टा की जायगी कि न्यवहार- नय जो कुछ कहता ह॑ बह टृष्टिभेदसे श्रयथाथ न होकर स्वधा श्रषथाथं है तव तो स्याद्वादनय-गर्भित जिनवाणीकों छोड़कर जे नोंको भी शुद्धाद्रैतको श्रपनाना पड़ेगा । जं नसिद्धान्तरूपी वन विविध भंगोंम गहन ह उसे पार करना दुरूदद है। मार्गेश्रट्ट हुए लोर्गोको नयचक्रके संचारमें प्रवीण गुरु ही मागेपर लगा सकत थे । खेद है कि आज ऐसे गुरु नहीं हैं और जिनवाणीके ज्ञाता विद्धान्‌ लोग स्व पक्तपात या श्रज्ञानके वशीभत होकर अथेका अनथे करते हे, यह जिनवाणीके अआराधरकोका महद्‌ दुभाग्य रै, अस्तु । मवेज्ञकी चचाका श्रवतरण-- रेसा प्रतीत दोता है कि श्नाचायं समन्तभद्रके समयमे बाह्य विभति. श्रौर चम- त्काररोंको ही तीथंकर होनेका मुख्य विह्न माना जाने लगा था । साधारण जनता तो सदसे इन्हीं चमत्कारोंकी चकार्चोधके वशीभत होती श्राईं है । बुद्ध श्रौर महाबीरके समयमे भी उन्ही बहुलता दृष्टिगोगर होती है । बुद्धको + अपने नये अनुयायियोंको प्रभावित करनेके लिये चमत्कार दिखाना पडता था । श्राचाये समन्तभद्र जैसे परीक्षा- प्रधानी महान्‌ दाशेनिकको यह बात बहुत खटकी; क्योंकि चमत्कारोंकी चकाचौंधमें श्राप्रपरूषकी श्रसली विशेषतारपैः जनताकी दृष्टिसे श्रोकल होती जाती थीं । शत: उन्होंने श्राप्रमीमांसा' नामसे एक प्रकरणग्रन्थ रचा जिसमें यह सिद्ध किया कि देब्नोंका श्रागमन आकाशमें गमन, शरीरकी विशेषताएँ तो मायादी. जनोंमें भी .देखी जाती हैं, जादूगर भी जादुके जोरसे बहुत-सी ऐसी बातें दिखा देता-है जो जनस!ध'रणकी बुद्धिसे परे होती हैं । अतः इन बातोंसे किसीको आआप्त नहीं माना जा सकता । श्आप्रपरुष तो वही है जो १ शुदधव्वया, ४० २६, ८६ दि ।




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