गर्जन | Garjan

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Garjan by भगवतशरण उपाध्याय - Bhagwatsharan Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गजेन | ११ कुसुमध्वज की सुन्दरियों को अपने आगे कर पंचाल की ओर श्रस्थान किया । भागे नर लौटे । | पाटलिपुत्र की कति मलिन हो गहे थी, उसकी लक्ष्मी मसल गईं थी। राजधानी की नागरिकाओं को इते-गिने परुषो की ओर देखते लञ्ना आती । उनके परुषो की संख्या नहीं के बरावर हो गई थी। समाज कीं व्यवस्था फिर से हुइ । एक-एक परुष को छः-छः खियों ने वरा । चारों ओर ख्री-राज्य का आतंक-सा छा गया । बालक बलपूवक पति बनाए गए । कलिंगराज ने तीथंकरों को धन्यवाद दिया। सिमुक अपनी नीति की विज्य पर हंसा । शूलपाणि का व्यवसाय फिर जगा। ` २ ॥ शरदागम से श्राकाश स्वच्छो हो चला था ओर सागर का जल निर्मल नील । पूर्णिमा की रात्रि में फिर फेनका तट पर बैठी बड़ी देर तक लहरों का उत्थान-पतन देखती रही । अनुकूल सँद वायु के संसग से बेला का उदय-निलय वह निद्दारती रद्दी । एक-एक लहर के साथ समुद्र अनन्त सीपियों का संहार उसके चरणों में वमन कर देता, शंख-निचय उसके सम्मुख बिखेर देता। वह प्रत्येक वेला कै साथ उठती, कुछ सीपी कुछ शंख चुनती फिर बेठकर कुछ गुनने लगती । सीपियों पर मेक अनंत रंग चदे थे, एक का वशं दुसरे से सर्वथा भिन्न था। फेनका आश्चयं से चकित रह्‌ जाती। कौन इन र्गो को भरता है? इन रगोकीत्रिविधता का क्या कोटे अंत नहीं ? वहद पूछती ।




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