कालिंदी के किनारे | Kalindi Ke Kinare

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Kalindi Ke Kinare by रामकुमार भ्रमर - Ramkumar Bhramar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about रामकुमार भ्रमर - Ramkumar Bhramar

Add Infomation AboutRamkumar Bhramar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
कालिन्दी के किनारे १७ ज्वाला चाहिए जो केशी की आंख सै आंख मिलते ही बूझे नही--कौधे उससे कहीं अधिक तीव्र चमक के साथ कौंधे बस कुल एक ही शक्ति हूँ केशी के पास । कंटक जानता है । शदि इस शक्ति का प्रत्युत्तर दे सका तो बह सत्य की सतह पाना तो दर- किनार दृष्टि की पलक भी नही लांघ सकेगा । केशी उसकी ओर से पीठ किए हुए । कंटक को यह भी ज्ञात है । केशी इसी तरह हर उस आदमी का सामना करता है जिसे वह चौकाना चाहता है। मुडते ही उत्तर देने वाले को उसकी वेधक दुष्टि का सामना करना होता है। वह इतना आकस्मिक और तीव्रगति से होता है कि साधारणत व्यवित अपने-आप को सहेज ही नहीं पाता । बस व्यमित का पही असस्तुलन केशी की शक्ति बन जाता है। वह दनु से दृष्टि की राह उसके अम्दर तक । और पलक झपकते ही अन्दर की हर बात बाहर । प्रभाग निवेदित करता हूं सेनानायक । कंटक ने स्वर में विनज्रत्त बौर शब्दों में संयम सहेजकर कहा 1 केशी मुड्ा नहीं । उसी तरह खड़े-खड़े प्रश्न किया था हमें ज्ञात हुआ है कंटक कि देवकी के पुत्र नहीं पुरी हुई ? हां देव । कटक मे जैसे उपहास्त करते हुए उत्तर दिया भविष्य चैवता असत्य सिद्ध हो गये सेनापति । जिसे महाराज कंस का वाल कहां गया था वह काल नहीं बन सका 1 केशी एकदम मुद्दा । उसकी दृष्टि जैसे बाग उगल रही थी । उससे कहीं अधिक आाग को ज्योति कंटक को अपनी ओर चढ़ती हुईं पर कटक इस स्थिति को बयूवी पहुचानता था 1 तुरन्त स्वयं को साध लिया । बोला व भी मधुराधिपति के हाथों हत हो चुकी है सेनामापक अब उन्हें निश्चित होना चाहिए । स्वर इतना सधा हुआ था दि देशी की दप्टि-अअगार की ज्वाला लपलपाकर रहे गयी । बट दूष्टि घरावर मिलाये रहा 1 पुतलियों की अर्थिरता ने केशी के सधय को जो दिसो-न-किसी रूप से निश्वय यन थुका था--यनायास पुनः संघय में बदल दिगा 1 तगा जैसे यह प्रश्नसित हो गया है। कुछ




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now