जैन हितैषी | Jain Hitaishi

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Jain Hitaishi by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ । जैनहितैषी- [ भाग १४ १-अध्मूलगुण । जेनधर्ममें जिस प्रकार मुनियोंके लिये मुढगुणों और उत्तरगु्णोंका विधान किया गया है उसी तरहपर श्रावकों-जेनगृहस्थोॉंके लिये भी मूछोत्तरगुर्णोका विधान पाया जाता है। मुलगुणोंसे अभि- प्राय उन बतनियमादिकसे हे जिनका अनुष्ठान सबसे पहले किया जाता है और जिनके अनुष्ठान पर ही उत्तरगुणोका अथवा दुसरे बतनियमादिकका अनुष्ठान अवलम्बित होता है । दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि जिसप्रकार मूठके होते ही वृश्षके शाखा, पत्र, पुष्प और फलादिकका उद्धव हो सकता है उसी प्रकार मूलगुर्णोका आचरण होते ही उत्तरगुणोंका आचरण यथेष्ट बन सकता है । श्रावकोंके लिये वे मूलगुण आठ रखे गये हैं; परेतु इन आठ मुलगुणोके प्रतिपादन करनेमें आचार्योके परस्पर मत-भेद्‌ है । उसी मत-भेद्कों यहँपर , सबसे पहले,दिखलाया जाता है:- १ श्रीसमन्त भद्ाचार्य, अपने ररनकरंडश्रावकाचारभ्मे, इन गुर्णोका प्रतिपादन इस प्रकारसे करते है-- ^“ मदयमांसमधुस्यागेः सहाणु्रतपंचकम्‌ । अष्टौ मूलगुणनाहुैदिणां ्रपणोत्तमाः ॥ अथात्‌-- मय, मांस ओर मधुके त्याग सहित पच अणरत्रतोके पाटनकों श्रमणोत्तम गृह- स्थाके अष्ट मूलगृण कहते हँ । पंच अणुवतोंसे अभिप्राय स्थर हिंसा, शूठ, चोरी, कुशील ओर पस्मिह नामके पंच पापस विरक्त होनेका हे । इन नतेकि कथनके अनन्तर ही आचार्यं महोदयने उक्तं पद्य दिया हे । २ * आदिपुराण के प्रणेता रश्रीजिनसेनाचार्यं समन्तमव्रके इस उप्यक्त कथनमें कुछ परि वतन करते हैँ । अर्थात्‌, वे ‹ मधुत्याग › को मूलगुणोमिं न मानकर उसके स्थानमे ‹ युत-त्याग ” को एक जुदा मूलगुण बतलाते ह ओर शेष गुणोका, समन्तमद्रके समान ही, ज्योका त्यां प्रतिपादन करते हें । यथाः-- ““ ह्िसासत्यस्तयादब्रह्मपरिग्रहाच वाद्रभेदात्‌ । दूतान्मां सान्मदयाद्वरातिेदिणोऽ सम्त्यमी श्ूख्गुणाः ॥ नहीं मालुम जिनसेनाचार्यने “ मधुत्याग › को मूठगुणोसि निकार कर उसकं स्थानम “ यूत- त्याग; को क्यो प्रविष्ट क्रिया हे । संभव है छि दक्षिण देश्चकी, जह आचाय महाराजका निवास था, उस समय ऐसी ही परिस्थिति हो जिसके कारण उन्हें ऐसा करनेके लिये बाध्य होना पड़ा हो- वहाँ युतका अधिक प्रचार हो और उससे जनताकी हानि देखकर ही ऐसा नियम बनानेकी जरूरत पड़ी हो-अथवा सातों व्यसनोंका मूठग़णोंमें समावेश कर देनेकी इच्छासे ही यह परिवर्तन स्वीकार किया गया हो । और * मघुविरति'को इस वजहसे निकालना पड़ा हो कि उसके रखनेसे फिर मूठ- गु्णोंकी प्रसिद्ध * अष्ट * संख्यामें बाघा आती थी। अथवा उसके निकालनेकी कोई दूसरी ही वजह हो । कुछ भी हो, दूसरे किसी भी प्रधानाचार्यने, जिसने अष्ट मूठगुणोंका प्रतिपादन किया हे, * मधु- वरेति? को मुलगुण माननेसे इनकार नहीं क्रिया ओर न “ यूतविरति › को मलगुर्णोमि झामिल किया है । . ३ ˆ यशस्तिलक * के कती श्रीसोमदेवसूरि मद्य, मांस ओर मधुके त्यागरूप समन्तभद्रके तीन मठगुणोंकों तो स्वीकार करते हैं परंतु पंचाणुब्रतोंको मूलगुण नहीं मानते, उनके स्थानम पच




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