जैन साहित्य और इतिहास | Jain Sahity Aur Itihas

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Jain Sahity Aur Itihas  by नाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेखककी ओरसे सन्‌ १९२१ के अन्तम जब ‹ जेनहितैपी ' बन्द हुआ था, तभीसे यह सोचता रहा हूँ कि अपने लिखे हुए; तमाम ऐतिहासिक लेखोंका एक संग्रह प्रकाशित कर दिया जाय । स्नंही मित्र भी इसके लिए; हमेशा प्रेरणा करते रहे हैं; परन्तु अब तक यह कार्य न हो सका । गत चर्प जब इस कार्यको करने बैठा, तब देखा कि उन लेखोंको ज्यॉका त्यों प्रकाशित नददीं किया जा सकता, क्योंकि पिछले ३० वर्षोमें वहुत-सा अल्य साहित्य प्रकादामें आ गया है, बदुतसे दिलालेिग्य, ताम्रपत्र आदि आविप्कृत हो चुके हैं और बदुत-सी नई नई खोजें भी विद्वानोंने की हैं। जब तक उनकी रोशनीमें इन सबकी जाँच पड़ताल न कर ली जाय, तब तक यह एक निरथक-सा काम होगा । अनएव यही निश्चय करना पड़ा कि प्रत्येक लेखका संशोधन कर लिया जाय । परन्तु यदह कार्य सोचा था, उतना सदज नहीं मातम हुआ । अधिकादा लेग्वोंको तो बिल्कुल नये सिरेसे लिखना पड़ा और कुछ काफी परिवर्तेन आर संदोधन करनेके बाद ठीक हो सके । प्रतिदिन तीन चार घंटेसे कम समय नहीं दिया गया, फिर मी इसमें लगभग एक वर्ष लग गया । इस संग्रहमें कुछ लेख ऐसे मी हैं, जो पहले कहीं प्रकाशित तो नहीं हुए हैं परन्तु जिनके विषयमें बहुत-सी तैयारी कर रक्‍्खी गई थी, जैसे महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयभु, पद्मचरित ओर पडमचरिय, पद्मप्रम मल्धारि- देव, जिनदशतकके टीकाकरत्ता, चार वाग्भट, तीन धनपाट, आदि । ये सब भी इसी बीच लिख लिये गये और इस संग्रहममें दे दिये गये ।




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