अध्यात्मकमलमार्तण्ड [प्रथम परिच्छेद] | Adhyatmakamalmartand [Pratham Parichched]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५६ वीरसेवामन्दिरग्रन्थर्माला जीवो ज्ञानावरण, दशनावरण शरीर मोहनीयकरमका विरोष उद्य पाया जाता है श्रौर कर्मोदयसे जिनकी चेतना मलिन है--राग- ्रेषादिसे श्राच्छयादित है--वीर्यातरायकमेके किचित्‌ क्षयोपशमसे इष्र अनिष्टरूप काये करनेकी जिन्हें कुछ सामध्य प्राप्त हा गई है ौर इसलिए जो सुख-दुःखरूप कमफलके भोक्ता हैं; ऐसे दोइन्द्रि यादिक जीबोंके मुख्यतया कमंचेतना होती है# | जिन जीबोंका मोहरूपी कलंक धुल गया है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण श्रौर बोर्यातराय कम के अशेष क्तयसे जिन्हें अ्नन्त- ज्ञानादिकगुशोंकी प्राप्ति होगई है, जो कम श्रोर उनके फल भोगने- में विकल्प-रहित हैं, आत्मिक पराधीनतासे रहित स्वाभाविक श्नाकुलतालक्षणुरूप सुग्बका सदा आस्वादन करते हैं। ऐसे जीव केवल ज्ञानचेतनाका ही श्रनुभव करते हैं {| परन्तु जिन जीवेकरि सिफं दशनमोहका ही उपशम, क्षय श्रथन चयापशम होता है. जो तत्त्वाथके श्रद्धानी हैं अथवा दशनमोह- के अभावसे जिनकी दृष्टि सूदमार्थिनी हो गई है--सृदम पदाथका अवलोकन करने लगी हे-शऔर जो स्वानुभवक रससे परिपृण हैं; दन्य तु प्रक्रठनग्माहमनीमसनापि प्रकृणज्ञानावरणम्‌द्रितानुमावरे न॒चेतकस्वभावन मनाग्वीयान्राय्तयरापशमासादितक्रायकारणमामथ्याः मुलदुःवानुरूपकमफलानुनवनमंयलितमपि कायमव प्राधान्येन नेतग्न ।' --प्र॑चास्ति तच्च दी ३८ † श््रन्यतरे नु प्रक्तालितेमकलनमाहकनंकरन समुन्छिन्रकृत्सलज्ञाना- वरगृतयायतमुनमद्रिनसमस्नानुमावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीयातरायन्त- गरासादितानेतवरीय। अपि निर्जोगकमफलत्वादत्यंतकृतकृत्यत्वाज्न स्वतो८व्य- तिरकतं स्वाभाविकं मुधवं ज्ञानमेव चतय॑त इति । --प॑चास्ि° तन्व रीर ३८




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