अध्यात्मकमलमार्तण्ड [प्रथम परिच्छेद] | Adhyatmakamalmartand [Pratham Parichched]

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Adhyatmakamalmartand [Pratham Parichched] by कवि राजमल - Kavi Rajmal

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कवि राजमल - Kavi Rajmal

Add Infomation AboutKavi Rajmal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
५६ वीरसेवामन्दिरग्रन्थर्माला जीवो ज्ञानावरण, दशनावरण शरीर मोहनीयकरमका विरोष उद्य पाया जाता है श्रौर कर्मोदयसे जिनकी चेतना मलिन है--राग- ्रेषादिसे श्राच्छयादित है--वीर्यातरायकमेके किचित्‌ क्षयोपशमसे इष्र अनिष्टरूप काये करनेकी जिन्हें कुछ सामध्य प्राप्त हा गई है ौर इसलिए जो सुख-दुःखरूप कमफलके भोक्ता हैं; ऐसे दोइन्द्रि यादिक जीबोंके मुख्यतया कमंचेतना होती है# | जिन जीबोंका मोहरूपी कलंक धुल गया है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण श्रौर बोर्यातराय कम के अशेष क्तयसे जिन्हें अ्नन्त- ज्ञानादिकगुशोंकी प्राप्ति होगई है, जो कम श्रोर उनके फल भोगने- में विकल्प-रहित हैं, आत्मिक पराधीनतासे रहित स्वाभाविक श्नाकुलतालक्षणुरूप सुग्बका सदा आस्वादन करते हैं। ऐसे जीव केवल ज्ञानचेतनाका ही श्रनुभव करते हैं {| परन्तु जिन जीवेकरि सिफं दशनमोहका ही उपशम, क्षय श्रथन चयापशम होता है. जो तत्त्वाथके श्रद्धानी हैं अथवा दशनमोह- के अभावसे जिनकी दृष्टि सूदमार्थिनी हो गई है--सृदम पदाथका अवलोकन करने लगी हे-शऔर जो स्वानुभवक रससे परिपृण हैं; दन्य तु प्रक्रठनग्माहमनीमसनापि प्रकृणज्ञानावरणम्‌द्रितानुमावरे न॒चेतकस्वभावन मनाग्वीयान्राय्तयरापशमासादितक्रायकारणमामथ्याः मुलदुःवानुरूपकमफलानुनवनमंयलितमपि कायमव प्राधान्येन नेतग्न ।' --प्र॑चास्ति तच्च दी ३८ † श््रन्यतरे नु प्रक्तालितेमकलनमाहकनंकरन समुन्छिन्रकृत्सलज्ञाना- वरगृतयायतमुनमद्रिनसमस्नानुमावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीयातरायन्त- गरासादितानेतवरीय। अपि निर्जोगकमफलत्वादत्यंतकृतकृत्यत्वाज्न स्वतो८व्य- तिरकतं स्वाभाविकं मुधवं ज्ञानमेव चतय॑त इति । --प॑चास्ि° तन्व रीर ३८




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now