जीवकाण्ड के टीकाकारों की भूल | Jeevakand Ke Tikakaron Ki Bhool
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
104
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१३
विचार किया दै | मे पहठे उनकी राङ्क ओंका उत्तान देकर प्रा
म्मिक स्पष्टीकरण कर देना चाहता ह | माम यहदहोताहि कि
वतमान समय के विद्वानों म द्रव्य वेद ओर माव वेद् के वैषम्य में
ही विवाद दै | आगमिक उभय सम्प्रदाय सम्मत प्रमाणो से ओर
युक्ति से यदि यह सिद्ध करिया जा सके कि द्रव्यवेद् अन्यके रहते
हुए भाव वेद अन्य हो सकता हैं. तो सारी समम्या अपने आप
सुखञ्च जाय । अनः हम पठे दोनो सम्प्रदायो के प्रन्थो से वेद-
चेप्रम्य की सिद्धि कते दै ।
जीवकाण्ड वेदमाभेणा मे ठ्वा हैः--
पुरिसित्थिसंढवदोदयेण पुरिसित्थिसंढञओ भावे ।
{९ हा
णामेोदेयेण द्वे पाएण समा कि विसमा ॥ २७१ ॥
अधथ--पुरुषवेद, ख्रीवेद और नपुसक वद कै उदय से जीव
भावपुरुप, भावखी और भावनपुंसक होता है । तथा निर्माण नाम
कर्म से युक्त आगे।पाग नामफ्मेके उदय से जीव द्रब्यपुरुष द्रब्यख्री
और द्व्यनपुंसऋ होता है । ये दोनों द्रव्य और भाववेद प्राय:
समान होते है पर कहीं इनकी बिपमता भी देखी जाती है ।
उक्त गाथा की टीकामे लिखा है--
° एते द्रव्यभावचेदाः प्रायेण प्रचुरचुन्या देवनारकेषु भोग-
भूमिखवतियंङ्मचुप्येषु च समाः द्र्यभावाभ्यां समबेदोदयां
किता भवन्ति। कचित् कमभूमिमयुप्यतियग्गतिद्धये विषमाः
चिखदश्ा अपि भवन्ति । त्था दभ्यतः पुरषे भचपुरष भाव-
खी भावनपुंसकं । दव्यसियां भावपुट्पः भावस्त्री भाचनपुंस कं ।
द्व्यनपुंसके भावरपरषः भावखरी भावनपुंसकं दति । '
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