संस्कृति और साहित्य | Sanskrti Or Sahitya

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Sanskrti Or Sahitya  by डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अरहुत कला की घ्म भावना डॉ० वासुरेवदारण अप्रवाछ भरहुत का स्तूप प्राचीन भारतीय कला का महान्‌ तीथें है । वह किसी उदास्त मस्तिष्कं की समृद्ध कल्पना है । स्तूप की बेदिका और तोरण अलंकरणों के चित्र धामिक कथाओ के कोश ही बन गए है । उनकी उक्केरी और सज में जितने विस्तृत अर्थ का समावेश कर दिया गया उसमे प्राचीन भारतीय धामिक और सांस्कृतिक जीवन का सुन्दर परिपूर्ण चित्र प्राप्त होता है । भरहत और साची के विशाल स्तूप प्राचीन भारतीय कला के दो तेजस्वी नेत्र ह । इन चक्षओं की सहायता से सस्कृति की गहराइयों मैं जो अथं छिपा हआ था, उसका देखना हमारे लिए सुलभ बन गया है) इन दोनों स्तूपो की भौगोलिक स्थिति जैसे भारतीय महाष्वीप का कलात्मक सयोजन सूचित करती दहै 1 पश्चिम मे शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा से अवन्ति जनपद कौ राजधानी उज्जयिनी को जो मागं जाता था उसपर साँची स्तूप का निर्माण हुआ ! पूवंकीमोर श्रावस्तीसे कौशाम्बी होकर जो मार्ग चेदि-महाकोसल को जात। था उसी के महत्वपूर्ण भाग पर भरहूत का स्तूप बनाया गया । इस मार्ग का और भी महत्व था । नमंदा और शोण के उद्गम के स्थान मेकला पर्वत के पश्चिमी ढलानो से आरम्भ होकर जो मागं पुरू उत्तर की ओर आकर फिर पूवं कीओर शोण नदीकी चाटीमे होता हंजा पाटलिपुत्र से जा मिलता था, उसका भी महत्त्वपूर्ण पडाव भरहुत में था । यो किसी चतुर भूगोरषेता और बास्तु बिद्याचार्य ने भरहत के स्तूप का स्थान निर्णय किया था । इस स्तूप की. कई विशेषताएँ है । भारतीय ऐतिहासिक कलाका यह सबसे प्राचीन प्रयत्नं है, जो इतने विशाल रूपमें किया गया । इससे पूर्व अशोक की मौयें कला एक दूसरे घरात पर थी । शुद्ध भारतीय लोक कला और धार्मिक कला का ज़ैसा पुर्णरूप भरहुत के स्तूप मे विकसित हुआ, वह कला के इतिहास की दृष्टि से विशेष अध्ययन की वस्तु है । भरहुत का स्तूप मौयेकाल के अत और शुग कयल के आरम्भ --दूसरी शती ईसवी पूर्व की रचना है । साँची का स्तुष उसके कुछ काल बाद का है । इस स्तुपकी दूसरी विशेषता यह है कि इसके द्वारा हम भारतीय स्तूप, तोरण भर बेदिकाओं के समन्वित विकास का दर्शन कर सकते हें । किसी समय पूवं युगमे मिट्टी या इंटों के स्तूप होते थे । कालान्तर में वेदिका और तोरणों के निर्माण की प्रथा पड़ी । इस अवस्था तक पहुँचने मे पर्याप्त समग्र लगा होगा । विकास की वे कडियाँ आज उपलब्ध नही हे, पर स्तुप बुद्ध के समयसे ही बनने लगे थे । उन स्तूपो से भरहुत के युग तक किसं प्रकार नए नए वास्तुके गग जोड़ने से स्तूप का 'स्वरूप अधिकाशिक' सखत होता गया । इस विषय की सामग्री अब लुप्त हो गई है। भरटुत स्तूप में हम विकास की एक पूर्ण अवस्था का दशेन पाते हे । भरहुत स्तूप के तोरण और वेदिकाओं की अन्य विशेषता यह है कि इनके निर्माता शिल्पियों ने अपने से पूबेकालीन काष्ठ शिल्प शैली की जिशेषताओ की अधिक से अधिक माता में रक्षा की । बेदिका स्तम्सो को ' देखकर एेसा लगता है मानों काव्ठशिल्प ने पत्थर का चोला पहिन लिया है । भष्टास्श- स्तम्भों (पाली>अट्ठस खंभ) पर झूलनेबाली फूलमालाएँ ज्योंकी त्यों लकड़ी से पत्थर में उतार दीं गई




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