कसाय पाहुड | Kasay Pahudam

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Kasay Pahudam  by फूलचंद्र सिध्दान्तशास्त्री - Fulchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११) पदनिक्षेप--मुजगारविकेषको पषनिक्तेप कहते है । इस श्रधिकारमे उक्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, जघन्य बृद्धि श्मरौर जघन्य हानि तथा श्चवस्थितपद इन सवका च्ाभ्रय लैकर संमुत्कीतना, स्वामित्व शरीर अत्पबहुत्व इन तीन अधिकारोके द्वारा मूल और उत्तरप्रकृतियो के प्रदेशसत्कर्मका विचार किया गया है । हृद्धि--पदनिततेपविशेषको वृद्धि कहते दँ । इस अधिकारमे यथासम्मघ वृद्धि श्रौर हानिके श्रवान्तर भेदो तथा यथासम्भव अवक्तव्यत्िभक्ति श्रौर अवस्थितविभक्तिका झाश्रय लेकर ममुत्कीतेना, स्वामित्व, एकं जीवकी श्पेत्ता काल, एक जीषकी छापेक्षा श्रन्तर, नाना जीवोको अपेश्चा भङ्गविचय, आगामाग, परिमाण, कत्र, सशेन, काल, न्तर, भाव च्रौर अल्पवहुत्व न तेरह श्रधिकारोके द्वारा मूल श्रौर उत्तर प्रकृतियोके प्रदेशसत्कर्मका विचार क्रिया गथा हे । सत्कमस्थान - मूल आर उत्तर प्रकृतियो के प्रदेशसत्कर्मस्थान कितने हैं इसका निर्देश करते हुए मूलमें बतलाया हैं कि उत्कृष्ट प्रदेशसत्कमैका जिस प्रकार कथन किया है. उसी प्रकार प्रदेशसत्कर्मस्थानोका भी कथन कर लेना चाहिये । फिर भी विरोपताका निर्देश करतें हुए प्रकृतमे प्रूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अधिकार उपयोगी बतलाये हैं । मीना भरीनचूलिका पटले उन्कृषट, अनुतर, जघन्य शरीर श्रजघन्य प्रदेशविभक्तिका विस्तारके साथ विचार करते समय यह बतला आये हैं कि जा गुशितक्माशिक जीव उत्क्पण द्वारा अधिकसे श्रधिक प्रदेशोका सञ्चय करना हैं उसके उन्कृप्ट प्रदेशविभक्ति होती है और जो क्षपितकर्माशिक जीव स्पकर्पण द्वारा क्मत्रदेशों को कमसे कम कर देता है उसके जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए सहाँपर यह प्रश्न उठता *ै कि क्या सब कर्मपरमाणुओका उत्कपण या अपकर्षण होना सम्भव है, बस इसी प्रश्नका समाधान करनेके लिप यह्‌ फीनामीन नामक्‌ चूलिका अधिकार श्रलगसे कहा गया है । साथ ही इसमें संक्रमण योर उदयकी अपेक्षा भी इसका विचार किया गया है। दस सवस फिचार यहाँपर चार अधिकारोका आश्रय लेकर किया गया है । वे अधिकार ये है-- समुत्वीर्तना, प्ररूपणा, स्वामिस्त्र छीर अल्पबढुत्व । समुत्कीतेना---इस उधिकारमे अपकपपण, उत्कपेण, संक्रमण ओर च्द्यसे भीन और अभीन स्थिनिवाल कमपरमारु ओके अस्तित्वकी सूचना मात्र दी गई है । प्रकृतमे भीन शब्दका अर्थ रदित श्र अमीन शब्दका अथे सटिन हे । तदनुसार जिन कमंपरमाणुजका श्रपकर्षण, उत्कपैण, संक्रमण और उदय होना सम्भव नहीं है वे अपकप, उत्कर्पण, संक्रमण 'छर उदयसे मीन स्थितिवाले कमपरसाणु माने गये हैं । और जिन कर्मपरम।णुओं के ये अपकपंण श्रादि सम्भव है वे इनसे अभ्दीन स्थितिवाले कमपरमाणु माने गये हैं । प्ररुपणा--इस अधिकारम अपकप्पेण आदिसे भोन आर अनीन स्थितिवाले कमंपरमाणु कौन है इसका विस्तारके साथ विचार किया गया है । उसमे मी सर्वप्रथम अपकप्पणकी अपेक्षा विचार करते हए बतलाया गया है कि उदयावलिके भीतर स्थित जितने कमंपरमाणु हैं वे सब छअपकपैभसे फीनस्थितिवाले ओर जेप सब क्मपरमाणु अपकपपणसे अभीन स्थितिवाले है । तात्पर्य यह हैं कि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु्ओोंका अपकपेश न होकर वे क्रमसे यथाबस्थित रहते हुए निर्जेंयकों प्राप्त होते है, इसलिए वे अपकर्पणके अयोग्य होनेके कारण अपकणुसे भदीन




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