क्वारे सपने | Kware Sapane

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Kware Sapane by जयप्रकाश शर्मा - Jayaprakash Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १० ) 'समका' हरिनाथ ने भू कला कर कहा--चूल्हे पर चढ़ी रहना श्र वहीं से ५००१००८ ग 'हाँ-हाँ--' सूँधे कंठ से श्री बोलने ही वाली थी कि धुयें के एक ही हमले से चुप होगई श्रौर तभी दिव्या उत्तर ्राई, हरिनाथ ने झ्राते ही कहा--वाह, दिव्या बेटी पास श्रौर हम विरान ! बेटी जरा तौलिया तो ढूंढ दो ! ' 'लीजिये-- हरिनाथ के कंँधे से तौलिया उठा कर दिव्या ने थमत हुये कहा, वस बाबू जी ¦ गृसल खाने में पानी रक्ला है ~ तेल भी हैं श्रौर साबुन भी ।' 'शाबास--दिव्या बेटी नहीं बेटा है । बेटा नहीं वरदान है । ठीक दिव्या ने प्रतिरोध किया, सो तो नहीं मानती बाबू जी। झाप कह रहे हैं तो ऐसा ही होगा -- मगर बातों ही से तो पेट नहीं भरता । कभी झाफत ठहराते हैं, कभी वरदान । क्या अझ्छेत वरदान ले पाये है और हम श्रछत नहीं हैं तो हैं क्या । श्रापने कभी रप्ोई खाई हमारे हाथ की । “ग्रोह हो-- हरिनाथ ने बात बदल कर कहा--दिव्या बेटी-- राज जानेसे पहले पाँच रुपये ले लेना, समभकी । फिर दो क्षण के अस्तराल के बाद पादोके रोर से घबरा कर-बोलेः यह्‌ श्रब क्या लगता है तारा पाँडें फिर आर गया है । देखता हूं जाकर--' पाच मिनट बाद ही वहु लौटकर श्राये श्र दिव्या को बुला कर बोले--' देख तो दिव्या--दो सौ रुपये रक्खे होंगे सन्दूक में । दे दें तो तारा पाँडे से पिंड छूटे । कम्बख्त तब श्राया जब दुलंभ ही नहीं । श्रौर रौब तो देखो पुलिस लाया है, झदालत लाया है । कुर्की लाया है ।' रसोई में बेंठो श्री से पुकारा --'क्यों जी--वह रुपये खच् तो करे.




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