मन के भेद | Man Ke Bhed

Man Ke Bhed by राजाराम शास्त्री - Rajaram Shastri

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राजाराम शास्त्री - Rajaram Shastri

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हजारी प्रसाद द्विवेदी - Hazari Prasad Dwivedi

हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# 5 चित्त-विष्रेषणका इतिहास --------------- श्न ------------------------- अपने भावोंको व्यक्त न कर पा रही थी । अन्तमे उसे अग्रंजी भाषाका एक शिशुगीत याद आया, ओर इसके वाद्‌ वह इसी भाषामें सोच और बोर सकती थी ।” जब मोदावस्थामें इस ददयकी स्यति जगी, दाहिने हाथकी जडता, जो सेगके आरस्भसे थी जाती रदी भौर चिकित्सां समाप्त दो गद । इससे यद परिणाम निकलता है कि हिस्टीरियाके रोगी स्प्तियाँसे आत होते हैं । उनके रोगके लक्षण क्षतात्मक अज्लुभवोंके स्सत्यास्मक प्रतीक होते हैं । वे बहुत पुराने इुखद अनुभवोको यादं दी नहीं स्खते बल्कि अवतक उनसे असिभूत रहते हैँ । वे भूतसे निकल नहीं सकते और वतमान स्थितिकी उपेक्षा करते हैँ । मानसिक क्षतो पर्‌ मनकी यह “स्थिरता, उनके भ्रति यह आसक्ति मानसिक रोगका एक विशेषगुण है । चिन्तु त्रयुवरकी रोगिणीके कल क्षत उसी समय उत्पन्न हुए थे, जव वह अपने रूण पिताकी परिचर्या कर रही थी, अत- एव उसके रोग-लक्षण उक्त सिद्धान्ताजुसार पिताकी बीमारी ओर मृद्युके दी स्मृत्यात्मकं प्रतीकं समक्षे जा सकते हँ । जव कि उसके पिताकी सत्यु हुए अभी इतने थोड़े ही दिन हुए थे, तो उसके चिचारोंका पितापर स्थिर” होना कोई अस्वाभाविक वात न थी; बल्कि स्वाभाविक पितृष्ोक था । किन्तु यदि क्षतात्मक अनुभव और रोगोत्पत्तिके थोडे दी समय बाद, उसकी “रेचक चिकि- त्सा' न होती तो शायद भूतके प्रति उसकी यही आसक्ति अस्वाभाविक रूप धारण कर लेती । हिस्टीरियके लक्ष्णोका रोगीके जीवनसे सवैध जान छेनेके वाद हमें दो और बातों पर विचार करना चाहिये, जिन्हे ्युवरने देखा । इनसे रोगकी उत्पत्ति और चिकित्साकी क्रियाओं पर प्रकाश पडता है । पहली बात यह ध्यान देनेकी है कि घ्र्युवरकी रोगिणीको आय. हर रोगोत्पादक स्थितिमें किसी न किसी तीन्र आवेगको उपयुक्त शब्दों और कार्योके द्वारा व्यक्त करनेके बजाय




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