शरत - साहित्य विजया | Sharat - Sahitya Vijaya

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Sharat - Sahitya Vijaya by पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० विजया [ प्रथम ~ ---.~ -~----~ - ~~ +~ ~ ------~ -~- ~~~“ -~~ ++ ^~ .~- ~+ ~ 1. धरिकनं क न पा हा न ~ ~~~ ~ - ~ सुनकर एकाएक चचर हो उठा था कि भविष्यमें फिर ऐसा होनेसे तो काम नहीं चलेगा। तब आत्मसम्मानकी रक्षाके लिए. मुझे अपनेको म्हारी जायदाद और जमींदारीसे अलग करना ही होगा । .किन्तु विलसकी बातोंसे मेरे मनकी खीझ जाती रही बेटी । समझ लिया, वे अज्ञानी है, करें पूजा । बल्कि परायेके लिए दुःख सहना ही महत्व है । इस विलासकी प्रकृति भी अद्भुत है। इसके वचन और कामकी दृढ़ता देखकर कोई यह नहीं समझ पाता कि इसका हृदय इतना कोमल रै । खर, इसे जाने दो । वदद जगदीशका मकान जब तुमने समाज ( त्राह्म समाज ) को ही दान कर दिया है, तो अब देर न करके, इन छुट्टीके दिनोंमें ही उसकी सच्च तेयारी पूरी कर डालनी होगी । तुम्हारी कया राय है ? विजया--आप जो अच्छा समझंगे, वही होगा । रुपए अदा करनेकी उनकी मियाद तो खतम हो गईं दे ? रास०--बहुत दिन हुए । शतं आठ सालकी थी; पर अब यह नर्व साल बीत रहा है । विजया--सुनती हूँ , उनके पुत्र यदीं हैं । उन्हें बुलाकर और भी थोड़ी मुदत देना क्या ठीक न होगा १ शायद कोई उपाय कर सक | रास०--( सिर दिलाते हुए ) नहीं कर सकेगा--नहीं कर सकेगा--कर सकता तो-- विलास०--अगर वह रुपयोंका कुछ इन्तजाम कर भी ले; तो हम क्यों देंगे १ रुपए; लेते समय उस शराबीको होश न था कि क्या शर्त की है ? इसे केसे अदा करूँगा ? [ विजयाने विखाप्तविहारीकी ओर एक बार दृष्टिपात करके रासबिहारीके मुखकी ओर देखते हुए शान्त, किन्तु टद्‌ कण्ठसे कदा-- | विजया-- वह बाबूजीके मित्र ये | उनके सम्बन्धमें वे सभ्मानके साथ बात करनेकी आशा मुझे दे गये हैं ! विलस० --( गरजकर ) हजार आज्ञा देनेपर भी वह एक - रास°-- आहा; चुप रहो न विलास | पापके प्रति तुम्हारी आन्तरिक धृणा पापीके ऊपर न जा पढ़े, इसका खयाल रखो । इसी जगह तो आत्मसंयमका सबसे अधिक प्रयोजन है मेया ।




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