अरे, ओमप्रकाश | Oh Are Omprakash Facition

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Oh Are Omprakash Facition by मनहर चौहान - Manhar Chauhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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खरे गोमप्रकाश श्र मांखें उन पर टिकी रही । मैंने कोई रहस्योदूधाटन नहीं किया था । मैंने उन्हे केवल एक वात याद दिलाई थी--ऐसी वात जिसे वे अपनी उत्तेजना में भूल गए थे । मानव-स्वभाव कितना विचित्र है । उत्तेजना में मानव कितनी मामूली वातों पर भी ध्यान नही दे पाता मैंने अपनी _चहारदीवारी के भीतर उस नन्ही-सी टेकरो की ओर इशारा किया वह रही पुरानी मम्मा की कब्र । यदि झेब्र भी आप सोगो को दाक है कि पुरानी अम्मा का जहर तर्लया तक पहुंच रहा है तो जाइए गौर क्र को सोद डालिए । पुरानी अम्मा के अवशेष निकालिए भौर फेंक दीजिए जहा जी चहे--स्रीते का रास्ता साफ कर दीजिए लेकिन अवधेषो से जो बदबू आएगी उस की जिम्मेदारी मेरी न होगी । इन शब्दों के साथ मैं ख़िलस़िला कर हस पडा । यहां आप को बता दू. कि मैं शायद हो कभी खिलख़िलाता हु । खिलसिलाने जेरी रिथितियों में केवत सुस्करा देना ही सुखे एयॉप्त लगता है । इसी लिए--जब भी मैं खिलखिलाता हू--उस का प्रभाव हमेशा नाटनीय होता है । नाटकीय और रोमांचक सिलखिलाते समय अवश्य मेरी आखो की कौंघ इतनी तीब्र हो जाती है कि ज्यो ही मैं खिलखिलाया जुल्म के आगे-आगे सड़े लोगो के होठों पर भेंप-भरी मुस्कान आ गई । वे अपने-आप दार्मिन्दा थे झऔर मैं चाहता था वे केवल मुस्कराए नही | वे उसी तरह खिलखिलाएं जिस तरह मैं । मैंने दोनो हाथ अपने सिर के ऊपर तक उठाते हुए इशारा किया-- शुरू बया शुरू र खिलखिलाहुट शुरू वि एक क्षण तो जुलूस के लोग न सभके कि मेरा इशारा क्या हैं लेकिन जब समझे तो उन्होंने मेरे आदेश का पालन तुरन्त किया । सच-केनसव हंसने लगे--इंसे नहीं खिलखिलाने लगे। उन के मुह गए कह जीम श्ौर तासु नजर आने लगे और उन के गली से खिलखिलाहट का




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