जादूगर कबीर | Jadugar Kabir

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Jadugar Kabir by मनहर चौहान - Manhar Chauhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जादूगर कवीर १ नही जान सकते । कवीर चाचा श्रा जाएंगे, तो क्या कहेंगे ? लता पीछे हट गई, पर उसकी श्राँखिं रह-रहकर उस जादुई शबंत्त पर ठहर जाती थी । खिडकी के पास एक सोफा रखा था । दिलीप उस पर चढकर वाहर देखने लगा । उसका ध्यान वाहर था, इस मौके का लाभ उठाकर लता ने फिर उस प्याले का ढक्कन खोला । अहा; कितना सुन्दर रग '. कितनी मस्त सुगन्ध ! ऐसा पदार्थ भला कभी जहर हो सकता है ? कबीर चाचा ने शायद हमारे लिए ही यह दवेत बनाया है । श्रब् लता भ्पना लालच न रोक सकी । उसने एक घूंट पिया श्रौर वोल उठी--“श्हा-हा, भैया, कितना मीठा दंत है 1” दिलीप ने चौककर पीछे देखा । वह बोला--'ऐं ! तूने शवंत पी लिया * भ्ररे, वाप रे ! मर जाएगी तो ?”' लता हँस पडी--भैया । यह तो मजेदार दावत है । इतना झ्रच्छा शबंत मैंने राज तक नहीं चखा । भ्रह्मा ! कितना अच्छा है ! दिलीप भी ललचाया । वोला--“'सचमुच ?” लता ने कहा--“तू भी एक घूंट चखकर देख ले 1” “कवीर चाचा झ्राएँगे तो क्या कहेंगे ?” “कवीर चाचा ने जरूर यह शवंत हमारे लिए ही वनाया है ।”” भव दिलीप भी झ्रपना लालच न रोक सका । उसने भी एक घूंट पिया झ्ौर कहा--“अहा ! कितना श्रच्छा है 1” फिर दोनो सोफे पर चढे श्रौर खिडकी से बाहर देखने लगे । लता खिड़की से नीचे देखकर वोली--“भ्रोह ! कितनी




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