प्रसन्न राघवम् | Prasan Raghwan

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Prasan Raghwan by शेषराज शर्मा - Sheshraj Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१४ ) परन्तु सामाजिक कुप्रथाओंको हटानेके लिए श्रहसनमें व्यज्ञयके रूपमें हास्य- रसकी भी प्रधानरूपसे स्थिति आवश्यक है । अभिज्ञानशाकुन्तछ, रत्नावली छोर माछतीमाघव आदिसें श्दद्ार, बेणीसंहारमें वीर, महाभारतमें शान्त और लटक मेढक, हास्याणंव आदिसें हास्यरस प्रधानरसके रूपसें माने गये हैं । साधारणतः कविके दो भेद होते हैं--प्रतिनिधिकवि और विश्वकवि । किसी देष, कारु और अवस्थाको लच्यकर चरिन्रचिनत्रण करनेवाले कविको प्रतिनिधि कविं कते हैं। जिस कविकी रचना देश, काल और अवस्थाकी सीमाको पारकर सर्वप्रिय होती है, उसे विश्वकवि कते हैं । पूर्वेश्नेणीके कवि अश्वघोष आदि माने जौ सक्रते हैं और दूसरी श्रेणीके कवियोमें कालिदास, मवभूति और पाश्चात्य देदके शेक्सपीयर आदि कवि परिगणित हो सकते हैं । परन्तु विश्वकवि भी किसी छंदर्में स्वसमयका प्रतिनिधित्व भी अवश्य करते हैं। क्योंकि अपने समयके बातावरणकी छाप जिस किसी भी व्यक्तिमें अवश्य ही पढ़ती है'। महाकवि काटिदासने अपने महाकाव्य रघुवंशमे अग्निवर्णका जो चरित्र-चित्रण किया है वह उन्हींके समसामयिक मगधदेशके राजाका है ऐसा भी कोई विद्धान्‌ मानते हैं । सिद्धान्तकी दृष्टिसे विचार करनेपर कविके और भी दो भेद भाने जा सकते हैं---यथार्थवादी ( 8€211516 ) और भादृ्वादी (106९1150) । अपनी अनुभूति वा किसी विषयक्छो यथार्थरूपसे चित्रण करनेवारे कविको यथार्थवादी ओर किसी आदर्शे रुचये रचना करनेवारे कविको आदर्हावादी कहते है । मैंने यहां पर आदुर्शवादके अविरुद्ध यथार्थवादीको आदर्शवादी ओर आदुर्शवाद- की अपेक्षा न रखकर केवल यथार्थवादका चित्रण करनेवाले कविको यथाथंवादी माना है । कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि वास्तवर्में ये दोनों कवि कछाके पुजारी ह । परन्तु यथार्थवादीकी इृष्टिमें कला कछाके निमित्त है” इसके विपरीत एक आदुर्शवादीकी इष्टिमें कढा जीवनके और जीवन आदुर्शके निमित्त है। विवेचककी दृष्टिमें जिस प्रकार केंचल यथार्थवादिताका राग अरापनेसे काभ्यर्मे अश्लीठता और अनेतिकता ग्र्ठति आपत्तिकी खंभावना आ सकती है, उसी भ्र्छार केवर आदश्शवादिताकी पखावज्ञ बजानेसे भी रचना शुष्क धर्मशास्त्र वां नीतिशास्त्रका रूप धारण कर सकती है । इसी तरह कवि केवल कल्पना सश्टिमें ही { एणं ) विचरण करनेवारा सखमश्ना जायगा । इसकिए प्रगतिशील विचारवाले कविका रच्च दोनों शातमिं तुल्यरूपसे रहना भावश्यक हे । यथार्थवाद्‌ और आदुशवाद्‌ ये दोनों कविस्वछाभके किए साध्य नहीं हैं प्रत्युत साधन हैं । अतः इन दोनोंक्रा यथास्थान और यथासंभव पूर्वोक्त प्रकारसे उपयोग करना विचारश्षीरु कविका कर्तव्य हे ।




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