श्री दास चवरे दिगंबर जैन ग्रन्थ | Sri Dass Chaware Digmbar Jain Granth

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Sri  Dass Chaware Digmbar Jain Granth  by रामसिंह - Ramsingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किषय्‌ व रैली १५्‌ घोषणा की हैं । जैन समान में ऐसे मुनि महात्माओं का बाहुस्य रहा हैं । प्रस्तुत प्रंथ के रचयिता भी इसी कोटि के थे | उन्होंने अपना गुरु माना दै प्रकाश्चदाता को । यदि सूप से प्रकाश आता है तो वह गुरु है, यदि चन्द्र से प्रकाद्य आता है तो वह गुरु दै, और यदि किसी ज्ञानी से प्रकाश आता है तो बही गुरु है । उनका उपदेश है कि सुख के छिये बाहर के पदार्थों पर अच- म्बित होने की आवद्यकता नही है, इससे तो केवल दुःख और संताप दी वेगा । सचा सुख इन्दरियों पर विजय अर आभ्याम्‌ में हो मिलता है । यह सुख इंद्रियसुखाभासों के समान क्षणभंगुर नदी है, किन्तु चिरस्थायी ओर कल्याणकारी है | आसा कौ यद्रि के छिय न तीर्थ जल को आवश्यकता दै, न नानाप्रकार का वेष धारण करने की | आवश्यकता हैं केवल, राग और ट्ेष की ्रवृत्तियै को गेक कर, आत्मानुमव कौ 1 मूड मृडने से, केशलेच करने से या नग्न होने से ही कोई सच्चा योगी ओर युनि नदी कहा जा सकता । योगी तो तभी होगा जबे समस्त अतरग परमिह छट जयि ओर मन आसध्यान म छ्वरीन हो जवे । देवदर्शन के स्यि पाषाण के बड़े बड़े मन्दिर बनवाने ` तथः तीर्थो तीर्थ भटकने की अपेक्षा अपने ही शरीर के.भीतर निवासत करने बे देव का दर्षन करना अधिक पुखप्रद और कल्याणकारी है । आत्मज्ञान से हीन न्ियाकांड कणरह्रित चुष और पयाल॑ कूटने के समान निष्फल है । ऐसे व्यक्ति को न इन्दियपुख ही मिछता और न मोक्ष का मार्ग ही




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