जैनतत्त्वमीमांसा | Jaintattwamimansa

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Jaintattwamimansa by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १२) स्वयं पढ़ रहा हैं या दोपक पढा रहा है? दोपक पढा रहा है यह तो कटा नही जा सकता, क्योकि ऐसा मानने पर दीपकके रहने तक उसका पढना नहीं रुकना चाहिए । किन्तु हम देखते हैं कि दीपकके सद्धावमे भी कभी वह पठता है रौर कभी श्रन्य कार्यं भौ करने लगता है। इससे मालूम पडता है कि दीपक तो निमित्तमात्र हैः वस्तुतः वह स्वय पठता है; दीपक वलात्‌ उसे पढाता नही । इस प्रकार जो नियम दीपकके लिए हं वही नियम सव निमित्तोके लिए जान लेना चाहिए । निमित्त चाहें क्रिधावान्‌ द्रव्य हो श्रौर चाहें निष्क्रिय द्रव्य हो, कार्य होगा श्रपने उपादानके भ्रनुसार ही । श्रतः निमित्तका विक्त्प छोड़कर प्रत्येक ससारी जीवकों भ्रण उपादानकी ही सम्हाल करनी चाहिए । जो संसारी जीव श्रपने उपादानकी सम्हाल करता हैं वह श्रपने मो्तरूप इष्ट प्रयोजन फी सिद्धिमे सफन होता है श्रौर जो संसारी जीव उपादानकी उपेत्ता कर श्रपने श्रज्ञानके कारण निमित्तके मिलानेके विकल्प करता रहता है वह भ्रनानी हुमा संसारका पात्र वना रहता है । कारयेत्यिततिमे निमित्तोका स्थान ह इसका निपेव नही श्रौर इसलिए दाह्म दृष्टसि विवेचन करते समय शास्त्रोमे निमित्तोंके श्रनुसार कार्य होता है यह मी कटा गया ह 1 परन्तु यह सव कथन्‌ उपचरित ही जानना चाहिए । व्यवहारनय पराश्रित होनेसे ऐसे ही कथनको स्वीकार करता है, इसलिए मोक्षमागंमे उसे गौर कर स्वाघीन सुखके कारणभूत निश्चय- नयका भ्राप्रय लेनेका उपदेश दिया गया है । ससार श्रवस्थामे निश्चयके साथ जहाँ जो व्यवहार होता है, होश्नो । पर इस जीवकी यदि ऐसी श्रद्धा हो जाय कि जहाँ जो व्यवहार होता है वह पराश्रित होनेसे हेय ह ग्रीर निश्चय स्वाश्रित होनेसे उपादेय है तो ऐसे व्यवहारसे उसका विगाड नहीं । बिंगाड तो व्यवहारको उपादेय मानकर उससे मोचकार्यकी सिद्धि माननेमे है । श्रतः मोक्षेच्छूक प्रत्येक प्राणौको यही श्रद्धा करनी चाहिए किं मोच्तकारयक्रो ' सिद्धि माव निश्चया श्राश्रय लेनेसे ही होगी,




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