स्मरणान्जली | Smaranjali

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Smaranjali by मार्तण्ड उपाध्याय - Martand Upadhyay

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about मार्तण्ड उपाध्याय - Martand Upadhyay

Add Infomation AboutMartand Upadhyay

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
स्मरणांजरि १ घह मेरी कामधेनु ये मो के पापी कहा था सकता है कि मेरे साग लमनालालजी का सम्बत्य करीब करीडइ तमी से सुकु हुआ जद ये मेने दिख्दुस्तान के सावंजनिक जीवन में प्रबेण किया । उन्होंने मेरे सभी कार्मो को पूरी ठरइ अपना लिया था बद्दुतक कि मुझे कुछ करना ही महीँ पहता था । स्पष्ट मैं किदी गये काम को घुरू करता बे उसका बोश शुद उठा मरेते । इस तरह मु निश्चिन्त कर देता मानो उनका थीवन-शार्य ही बन बया था । बाईस बर्प पहले की बात है । ठी पा का एक्‌ मबयुषक मेरे पाष भाया बौर बोला ^ मापये कुक्त मांगना चाहता हूं 7” मरे थाक्र्प के साथ बडा “मांपो । चौज मेरे बस की होगी तो यै बूंमा । मुक णे भहा “जाप मुपे अपने देवदास कौ तरह मानिमे 1 मैने कहा “मान शिया | सेकिन इसमें शुमने मांगा क्या 1 इरबसल तो छुमने दिया सौर मैंने कमाया । यह नदपुषक्त चमनाछात थे | बह क्सि ठरदु मेरे पुत्र बन कर रहे सो दो हिंसुस्तान-बा्फों ने दुछ- कुछ भपनी मांखों देफा है । लहतक मैं थाना हूं में बहू सगसा हुं कि खा पुत्र अजत पाय किसको गही मिटा। या तो मेरे अनेक पुत्र सौर पुजियां है भयोकि खव पुत्रगतु कुएभ-भुए काम करते हैं. लेविन जमगाठाछ तो अपनी इच्छा से पुष बने थे थर




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now