महावीर-वाणी (1942) एसी 616 | mahavir Vani (1942)ac 616
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
209
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)1 १६ |
यही श्राय उपनिषत् के वाक्य काह,
्रविद्यायामन्तरे वत्तमानाः,
स्वयंघीराः पण्डितम्मन्यमानाः,
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढाः,
अ्न्धेनवं नीयमाना यथान्धाः ।
आज काल के पांडित्य मे, शब्द वहत, श्रथ थोड़ा ; विवाद बहुत,
सम्वाद नहीं; ्रहमहमिक्रा, विद्रत्ता-प्रदशेनेच्छा बहुत, सज्ज्ञानेच्छा
नहीं ; द्वेष द्रोह बहुत, स्नेह प्रीति नही; श्रसार-पलाल बहुत, सार-
घान्य नहीं; श्रविद्या-दुविद्या बहुत, सद्धिद्या नहीं; शास्त का प्रथ,
मल्लयुद्ध । प्राचीन महापुरुषों के वाक्यों में, इसके विरुद्ध, सार,
सज्ज्ञान, सद्धाव बहुत, असार श्रौर श्रसत् नहीं । क्या किया जाय,
मनुष्य की प्रकृति ही मे, श्रविद्या भीरः ग्रौर विद्याभी; दुःख भोगने
पर ही वैराग्य और सद्बुद्धि का उदय होता है ।
सा बुद्धियंदि पूर्व स्यात् कः पतेदेव बन्धने ?
फिर फिर श्रविद्या का प्राबल्य होता है; वेमनस्य, श्रश्यांति,
युद्ध, समाज कौ दुव्यंवस्था बढती हं; सत् पुरुषों महापुरुषो का
कर्तव्य है कि प्राचीनों के सदुपदेशों का, पुनः पुनः जीर्णोद्धार और
प्रचार करके, श्रौर सब की एकवाक्यता, समरसता, दिखा के,
मानवसमाज में, सौमनस्य, शांति, तुष्टि, पुष्टि का प्रसार करे,
जैसा महावीर श्रौर बुद्ध नें किया ।
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