ऋषभ देव : एक परिशीलन | Rishabhdev : Ek Prishilin

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Rishabhdev : Ek Prishilin by देवेन्द्र सत्यार्थी - Devendra Satyarthiश्री पुष्कर मुनि जी महाराज - Shri Pushkar Muni Maharaj

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श्री पुष्कर मुनि जी महाराज - Shri Pushkar Muni Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) शरमपदेव की निर्मल सत्यनिष्ठ का एक अद्भुत उदाहरण है । मै अनुभव करता हः यदि कोई गौर होतातोपेसी स्यितिमे कृ भौर ही कहता या मौन रहता । पन्स्तु भगवान्‌ ऋपमभदेव, देव वया, देवाधिदेव थे । जिन्दनि पथभ्रष्ट मरीचि के धूमिल वर्तमान वो नहीं, किन्तु उउ्ज्वल भविष्य को उजागर किया और यह सत्य प्रमाणित किया कि पतित से पतित व्यक्ति भी घुणापाश्र नहीं है । कया पता, वह कहाँ और कव जीवन की ऊची-से-ऊ ची दुर्ला दया को छूने लगें, आध्यात्मिक पवित्रता को पूर्णरूपेण भात्मसान्‌ करने लगे । कया आज हम उक्त घटना पर से अपने प्रतिपक्षी खेमे के लोगो के प्रति सदभावना कां भावादशं नही चे सकते ? भगवान्‌ ऋपमदेव जीवनके ह्र कोण पर उसी प्रकार दिव्य हैं, जिस प्रकार वे हूर्यरतन । उनका जीवन आज कौ विषम परिस्थितियों में भी अपने निमंल चरित्र की आभा चविखेर रहा है। सत्य की खोज में चल रहे हर यात्री के मन पर एक गहरी छाप डाल रहा है । उनका स्मरण होते हौ तममाच्छन्न जन-मानस में एक दिव्य एवं सुखद प्रकाश फल जाता है 1 उनके जीवन चरित्र मानव चरित्र के निर्माण के लिए हर युग में प्रेरणा स्रोत रहे मौर रहे गे । यही कारण है कि महाकाल के प्रवाह मे कोटि-कोटि दिन और रात बह गये, परन्त उनके जीवनलेखन को परम्परा अब भी गगा की धारा के समान प्रवहमान है 1 मृ हादिक हषं ह किं भगवान कऋपभदेव के जौवनचरित्रो के मुक्ताहार में एक और सुन्दर मृष्ता पिरोया गया है 1 हमारे तरुण साहित्यकार श्री देवन्द्र मूनि ने भगवान ऋपभदेव के चरणकमलोमे अपनी भावभरी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की है,और इस्त रूप मे भगवान मादिनाय का एक सुन्दर अनुणीलनारमक जीवन चरित्र लिखा है 1 श्वेताम्बर मौर दिगम्वर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थो के आधार पर लिखा गया यह्‌ प्रमाणपुर सर जीवनचरिश्र, चरियग्रन्थो के सदर्भ में नवीन इसी प्रस्तुत करता है । देवेन्द्र जौ षा चौद्धिक उन्मेष जो नवीन आलोक पा रहा है, उसका स्पष्ट सकेत उनकी यह्‌ एति ह 1 में भाषा करता हृ, मविप्य उनका साथ दे अर वे भने मध्ययन-अनु घोलन एवं चिन्तन को गौर्‌ ऊधिक व्यापकः यनाते हुए, भविष्य मे और भी अधिक सु पथ विचार पूर्ण करनियो से जेन साहित्य कौ श्रीदृद्धि कर यक्षस्वी हा! स्म स्थानक न्एणरा उपाध्याय श्रमर मुनि < पन, १६९०




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