समाज और संस्कृति | Samaj Aur Sanskriti
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
284
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about उपाध्याय अमर मुनि - Upadhyay Amar Muni
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मनुष्थ को सकल्प-शक्ति | ७
की पकड़ लिया तो बुरा दूर भाग गया । यही कारण है, कि मानव-जीवन की
परिभाषा सौर व्यार्या पूर्ण नही हो सकती है । यदि किसी भी एक पक्ष को
पकडकर मानव-जीवन को व्याख्या करने का प्रयत्ने किया जाएगा, तो वह्
प्रयत्न अघुरा ही रहेगा । मानव-जीवन की व्याख्या और परिभाषा दोनो पक्षों
के सतुलित समन्वय से ही की जा सकती है । मनुष्य के मन में राम भी बैठा
रहता है और रावण भी वैठा रहता है । यह ठीक है, कि हम दोनो की एक
साथ पूजा नही कर सकते, किन्तु उन दोनो का जानना तौ आवश्यक है ही ।
जीवन की वुराई को जानना इसलिए बआवश्यक है, कि उसे बुराई समकर
हम उसे छोड सके, ओर जीवने को अच्यार्द को जानना इसलिए आवक्यक है
कि उसे अच्छा समकर हम जीवन मे मपना सके ।
मै आपसे मानव-जीवन की वात कह रहा था । जब तक आप अपने
जीवन में बुद्धि और विवेक का प्रकाश लेकर नही चलेंगे, तब तक जीवन का
कल्याण नहीं होगा । यदि किसी व्यक्ति का जीवन न्ष हाथी के समान,
जगली भसे के समान ओौर एक भयंकर भेडिए के समान है, तो उससे न किसी
समाज को लाभ है और न किसी राष्ट्र को ही । मनुष्य का मन जत्र सो
जाता है, तब उसमे किसी प्रकार की स्पूति नही रहती । यदि मन में चेतना
नही है, तो केवल शरीर को चेतना से कोई विशेष लाम नही हौ पाता । अन्य
कुछ बनते से पहले मुष्के मनमे, मदष्य वनते की अभिलाषा होनी
चाहिए । मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए, अपनी बुद्धि और अपने मन को
जगरृत करना होगा । उसके विचार यदि कल्याण के मां पर्, ओर हिति के
मागं पर चल कर इस शरीर मे प्रसुप्त ईश्वरत्वं को जगाने के लिए हैं भौर
हुसरी आत्माओ को, उन मात्माओ को जो अनन्तकाल से मोहु-निद्रा मे प्रसुप्त
£ जागृत करने के लिए एव प्रेरणा देने के लिए,
अथवा मूले राही को सन्मागं
बताने के लिए, यदि मनुष्य के विचार प्रयुक्त किए जाते हैं, तब तो ठीक हि
घन्यथा कुच नही होगा । चात यह है, कि जीवन तो पशु-पक्षियो के पास भी
है, कीडे-मकोडो के पास भी है, जीवन के साथ-साथ उनमे गति भी है, किन्तु
विकास और प्रगति नही है । केवल विचार मात्र से ही काम नहीं चलता है
विकास और प्रगति भी चाहिए । एक पदु से भी भख एव प्यास को दुर करने
की प्रवृत्ति होती है, वासना की तृप्ति पु भी करता है, किन्तु इस दृष्टि से
मनुष्य और पशु मे क्या भेद रहा ? शरीर की गमावश्यकताएं जेंसी पशु के
पास होती हैं, मनुष्य के पास भी वे हैं, भले हो कुद्ध सुघरे हुए रूप में दो
किन्तु इस हष्टि से मनुष्य के जीवन को पशु-जीवन से ऊचा नही कहा जा
सकता । पशु में बुद्धि भी रहती है, किन्तु वह् उसका भयोग और उपयोग शारीर
User Reviews
No Reviews | Add Yours...